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नीति वाक्यामृतम्
अग्निहोत्रं त्रयो वेदाः प्रवृज्या नग्नमुण्डता । बुद्धिपौरुषहीनानां जीवितेऽदो मतं गुरुः ॥2 ॥
नीतिकार गुरु
अर्थकामावेव पुरुषार्थी, देहएव आत्मा इत्यादि ॥
नास्तिक मत के अनुयायी वृहस्पति ने कहा है कि मनुष्य को जीवन पर्यन्त सुख से रहना चाहिए । मनमाने इच्छानुकूल भोग-विलासों में तल्लीन रहना चाहिए मृत्यु के बाद कुछ नहीं है क्योंकि कुछ भी इन्द्रियगोचर नहीं होता । मृत्यु के बाद पुनर्जन्म है ही नहीं । फिर कहाँ सुख कहाँ दुःख ? न नरक है न स्वर्ग सब कल्पना व्यर्थ
है।
अग्नि में होम करना, तीनों वेदों का अध्ययन करना, प्रवज्यादीक्षा धारण करना, केश मुडाना, नग्न रहना, भिक्षुक बनना ये सब मूर्ख, बुद्धिविहीन, पुरुषार्थहीन प्रमादियों के कार्य हैं । कुछ करना धरना नहीं जीविका के साधन बनाना है। ये सब व्यर्थ हैं ।
धन कमाना और काम-स्त्रीसंभोग करना थे दो ही पुरुषार्थ उपयोगी हैं। बुद्धिमानों को इन दोनों को उपादेय समझना चाहिए । धर्म कर्म कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं। शरीर पोषण ही परम ध्येय है।
भावार्थ- नास्तिक दर्शन उक्त प्रकार केवल वर्तमान जीवन को ही सत्य स्वीकार करता है । इन्द्रिय प्रत्यक्ष जो कुछ है वही उपादेय है । दया, परोपकार, अहिंसा, सत्य आदि का निरुपण करना सत्य नहीं । इनके विषय में वह अनभिज्ञ है अतः निषेध करता है । अतः उसका कहना है पाप पुण्य कोई भेद भाव वाले नहीं हैं । भोगलिप्साओं का शमन येन केन प्रकारेण करना ही मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिए ।
नास्तिक दर्शन के ज्ञान से होने वाला राजा को लाभ :
लोकायतज्ञो हि राजा राष्ट्रकण्टकानुच्छेदयति ॥35॥
अन्वयार्थ :- ( लोकायतज्ञो) चार्वाक सिद्धान्त के ज्ञाता (राजा) भूपति (हि) निश्चय से ( राष्ट्रकण्टकान् ) राज्य के नाशक शत्रुओं को (उच्छेदयति) नष्ट करता है ।
जो राजा लोकायतिक सिद्धान्त को जानने वाला होता हैं वह अपने राज्य को सुरक्षित रखने के लिए ऐसे विचार वाले कुधर्मियों को ज्ञात कर राज्य से निकाल बाहर करता है ।
विशेषार्थ :- यद्यपि नास्तिक सिद्धान्त का अध्ययन करने से मनुष्य के अन्दर अविवेक, क्रूरता, अधर्मभावना, पापाचरण की प्रवृत्ति, दुष्टता, अनाचार, व्यभिचारादि दुर्गुणों में प्रवृत्ति होना संभव है परन्तु योग्य चतुर नृपति को इसका भी ज्ञान होना अनिवार्य है क्योंकि "बिन जाने तें दोषागुणन को कैसे तजिये गहिये" अर्थात् क्षीर-नीर वत् हंस न्याय करने के लिए दुष्टों की चाल को परखने के लिए नृप को समस्त सिद्धान्तों का अभ्यास करना आवश्यक है । इससे वह अपने राज्य में धर्म और सुनीति का प्रचार कर राज्य को आदर्श रूप देने में समर्थ हो सकता है।
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