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नीति वाक्यामृतम्
__ कुलीन उत्तम कुलोत्पन्न बच्चों में तुच्छ भाव देखे जाते हैं और नीच कुलोत्पन्नों में सदाचार, शिष्टाचारादि उत्तम भाव पाये जाते हैं यह विपर्यास क्यों ? पूर्व संस्कारों के कारण ही कहे जाते हैं । संस्कारों का तारतम्य एक दो भवों में नहीं अनेकों भवों तक चलता रहता है । अत: प्रत्येक प्राणी को शुभ, उत्तम, श्रेष्ठ संस्कार डालना चाहिए। शरीर का स्वरूप कहते हैं :
भोगायतनं शरीरम् ॥33॥ अन्वयार्थ :- (भोगायतनम्) पञ्चेन्द्रिय विषयभोगों का घर (शरीरम्) शरीर (अस्ति) है ।
जीव प्राणी-संसारी प्राणी शरीर के आश्रय से पञ्चेन्द्रियों के भोग-उपभोगों का सेवन करता है । शुभाशुभ भों से प्राप्त इष्टानिष्ट विषयों का भोग शरीर के माध्यम से संभव है।
विशेषार्थ :- शरीर में इन्द्रियाँ होती हैं । इन्द्रियों से विषय ग्रहण किये जाते हैं । विद्वान हारीत ने भी कहा
सुख दुःखानि यान्या कीर्त्यन्ते धरणीतले ।
तेषां गृहं शरीरं तु यतः कर्माणि सेवते ॥ अर्थ :- संसार में शुभ व अशुभ कर्मों के फल सुख व दुःख कहे जाते हैं, उन सबका महल यह शरीर है । क्योंकि समस्त कर्मों का निर्माण इसी शरीर रूप प्रासाद में होता है ।
संसार में प्राणी को संसार और मुक्ति का साधन शरीर है । अत: शरीर रहित होने का प्रयत्न करना चाहिए। नास्तिक दर्शन का स्वरूप :
ऐहिक व्यवहार प्रसाधनपर लोकायतिकम् ॥34॥ अन्वयार्थ :- (ऐहिक) इस लोक सम्बन्धी (व्यवहार) क्रियाओं का (प्रसाधनपरम्) संचय करने में संलग्न (लोकायतिकम्) चारवाक सिद्धान्त (अस्ति) है ।
जो दर्शन मद्यपान, मांसभक्षणादि का विधान करे उसे नास्तिक दर्शन कहा जाता है ।
विशेषार्थ :- चार्वाक सिद्धान्त मात्र वर्तमान जीवन का ही अस्तित्व स्वीकार करता है । उसके न परलोक है न शुभाशुभ कर्मों के फल भोगने की व्यवस्था है । अत: जब जीवन है भक्ष्याभक्ष्य का विचार न कर जो चाहो सेवन करो। जैसी चाहे क्रिया करो । सब यहीं रहना है । इस नास्तिक सिद्धान्त के अनुयायी वृहस्पति का कहना है कि :
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥1॥
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