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नीति वाक्यामृतम्
अर्थ :- राजकीय आदर-सत्कार से प्रतिष्ठा की उपलब्धि अथवा सज्जनों द्वारा सामाजिक प्रभुत्व की प्राप्तिया प्रगाढ़ भक्ति से प्राप्त गरिमादि को संस्कार कहते हैं । जाति, कुल परम्परा से जो मनुष्य की आदतें, अभ्यास चले आते हैं वे संस्कार कहलाते हैं । संस्कार-ज्ञानविशेष-का लक्षण निर्देश करते हैं :अनेक ब स मारनाशात् सद्योजातादीनां स्तन्यपिपासादिकं येन क्रियते इति संस्कारः ॥32॥
अन्वयार्थ :- (अनेक) पूर्व के अनेक भवों से कृत (कर्माभ्यास) कर्म आयुकर्म के निमित्त से किया अभ्यास (वासनावशात्) की वासना के निमित्त से (सद्योजातादीनाम्) तत्काल उत्पन्न हुए बालकादि के (स्तन्य पिपासादिकम्) स्तनपान करने की इच्छा (येन) जिसके द्वारा (क्रियते) की जाती है (इति) इस प्रकार की प्रवृत्ति (संस्कार:) संस्कार (भवति) होता है ।
वासना को संस्कार कहते हैं । संस्कारित जीवन परभव में भी फलता है ।
विशेषार्थ :- ज्ञान, ध्यानादि का जो व्यक्ति निरालस्य होकर सतर्कता से विनयपूर्वक अभ्यास करता है, वह संस्कार परभव में भी जाता है । आचार्य श्री कहते हैं :
विणयेण सुदमधीदं जदि वि पमादेण होदि विस्सरिदं । तंमुवट्ठादि परभवे केवलणाणं च आवहदि ॥
मू. चा. कुन्दकुन्द
यदि विनयपूर्वक श्रुत का अभ्यास किया जाता है और प्रमाद कारण वश विस्मृत भी हो जावे तो भी अगले भव में वह जाग्रत होता है और क्रमशः केवलज्ञान को उत्पन्न करा देता है । गौतमनामक दार्शनिक विद्वान ने भी लिखा है :प्रेत्याहाराभ्या कृतात् स्तन्यभिलाषात् ॥1॥
गौतम सू. अ. 3 आ. 1 सूत्र अर्थ :- यह प्राणी पूर्व शरीर का परित्याग कर जिस समय नवीन शरीर धारण करता है, उस समय उत्पत्तिकाल में ही शिशु का रोदन, हाथ-पैर संचालन दुग्धपानेच्छा-क्षुधा-तृषा की शान्ति के उपाय, दुग्धपान करना आदि क्रियाएँ स्वभाव से होती हैं । इनमें पूर्वाभ्यास ही कारण होता है । माता के स्तनपान, मुँह का स्फालनादि कौन सिखाया? स्वयं स्वभाव से करता है । क्यों ? क्योंकि पूर्व पर्यायों से वैसा करता आया है, उनका अभ्यस्त है । अभ्यासानुसार ही वह उन क्रियाओं को करता है यह सब संस्कार जन्य क्रियायें हैं ।
क्षुधा पीड़ित हो भोजन की अभिलाषा करता है, पिपासा लगने पर नीर-पान चाहता है । अन्य भी पाँचों इन्द्रियों के विषयों में सहज प्रीति होती है विकर्षण-अप्रीति होती है यह सब पूर्व संस्कारों के निमित्त से होती
है।
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