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नीति वाक्यामृतम्
अब कुलीन का माहात्म्य और कुत्सित पुरुष की निन्दा करते हैं :
स किंपुरुषो यस्य महाभियोगे सुवंशधनुष इव नाधिकं जायते बलम् ॥26॥
अन्वयार्थ :- (यस्य) जिस पुरुष के ( महाभियोगे) विपत्ति-संकटकाल में (सुवंशधनुष इव) उत्तम बांस के धनुष समान ( अधिकम् ) अधिक बल (न) नहीं (जायते) उत्पन्न होता है (सः) वह (किंम्) क्या ( पुरुष ) पुरुष ( अस्ति ) है ?
जो पुरुष भीषण विपत्ति काल उपस्थित होने पर युद्धादि काल में पुरुषार्थ नहीं दिखाता उतम बांस के धनुष समान सुभटता प्रदर्शन नहीं करता वह श्रेष्ठ पुरुष है क्या ? अर्थात् नहीं है ।
विशेषार्थ :- जो शत्रु का सामना करने में छाती तान कर अड़ जाता है वह वीर पुरुष होता है । उत्तम वंश - जिनकी जाति कुल शुद्धि होती है, हि शुद्ध है वह शूर-वीर, सुभट मृत्यु वरण कर लेगा किन्तु शत्रु को पीठ दिखाकर नहीं भागेगा। परन्तु दुष्कुल या निंद्य कुलोत्पन्न विपद काल में कायर हो जाता है और भागने की चेष्टा करता है । प.पू. आचार्य श्री आदिसागर जी अंकलीकर एवं उनके पट्टाधीश आचार्य शिरोमणि महावीर कीर्ति जी सदैव अपने उपदेशों में कुल वंश परम्परा की शुद्धि का विशेष रूप से आदेश दिया करते थे ।
'गुरु' नामक विद्वान ने भी लिखा है :
युद्ध काले सुवंश्यानां वीर्योत्कर्ष: प्रजायते । येषां च वीर्यहानिः स्यात्तेऽत्र ज्ञेया नपुंसकाः ॥1 ॥
अर्थ :- संग्रामभूमि में कुलीन पुरुषों की वीरता शक्ति की वृद्धि होती है, और जो पुरुष उस काल में वीरता छोड़ देते हैं- युद्ध से मुख मोड़ लेते हैं, उन्हें नपुंसक समझना चाहिए । वे कायर शिरोमणि हैं । अभिलाषा इच्छा का लक्षण निर्देश :
आगामिक्रिया हेतुरभिलाषो वेच्छा ॥27॥
अन्वयार्थ :- (आगामिक्रिया) भविष्यकालीन कार्य का ( हेतू) कारण (अभिलाषा) आकांक्षा (वा) अथवा (इच्छा) इच्छा (भवति) होती है ।
भविष्य में विषय-भोगों की प्राप्ति की आशा अभिलाषा या इच्छा कहलाती है ।
विशेषार्थ :- मनुष्य वर्तमान में प्राप्त भोगों को सेवन करता हुआ, भविष्य में भी उनके बने रहने की या प्राप्त होने की चिन्ता करता है । इसे ही इच्छा या अभिलाषा कह सकते हैं । विद्वान गुरु कहते हैं :
भावि कृत्यस्य यो हेतुरभिलाषः स उच्यते । इच्छा वा तस्य सन्धा या भवेत् प्राणिनां सदा ॥] ॥
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