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नीति वाक्यामृतम्
अर्थ :- जो भावष्य में होने वाले कार्य में हेतू हैं उसे अभिलाषा, संधा या इच्छा कहते हैं । यह आकांक्षा संसारी प्राणियों के सतत् रहती है । अभिप्राय यह है कि साधारण मानवों में रहने वाला यह साधारण गुण है । इससे जो ऊपर उठते हैं वे महात्मा, योगीश्वर, व सन्त कहलाते हैं । परमात्म दशा पाते हैं । अत: इच्छा का निरोध करना चाहिए । अब दोषों की शुद्धि का उपाय बताये हैं :
आत्मनः प्रत्यवायेभ्यः प्रत्यावर्तन हेतुढेषोऽनभिलाषो वा ॥28॥
अन्वयार्थ :- (आत्मनः) आत्मा का (प्रत्यवायेभ्यः) दोषों के द्वारा (प्रत्यावर्तन) रक्षण करने का (हेतु:) उपाय (द्वेषो) दोषों के प्रति द्वेष (व:) अथवा (अनभिलाषा) भविष्य में नहीं करने की आकांक्षा ।
आत्मा को निर्दोष दो उपायों से बनाया जा सकता है - उन दोषों से विरक्ति अर्थात् द्वेष करना और भविष्य में ये दोष नहीं हो इसके लिए सावधान-सतर्क रहे ।
विशेषार्थ:- जिसके प्रति ग्लानि हो जाती है प्राणी-मनुष्य उस कार्य से विरत हो जाता है । उससे वह दूर रहने का प्रयत्न करता है । आगामी काल में वे दोष न हों इसके लिए प्रयत्नशील रहता है । तभी आत्मा यथार्थ में शुद्ध-निर्दोष हो सकती है । "गुरु" का कथन है :
आत्मनो यदि दोषाः स्युस्ते निन्द्या विबुधैर्जनैः । अथवा नैव कर्त्तव्या वाञ्छा तेषां कदाचन ॥1॥
अर्थ :- यदि आत्मा किन्हीं अपराधों का कर्ता हो जावे तो विद्वानों सुखाभिलाषियों का कर्तव्य है कि अतिशीघ्र उनका निवारण कर लें, प्रक्षालन कर डालें । निन्दा, गर्दा आदि द्वारा उनका निराकरण करें तथा भविष्य में ये अपराध बनें ऐसी इच्छा नहीं करते । इस प्रकार जो निस्प्रमाद हो अपराधों से बचने का प्रयास करते हैं वे ही महान हैं और निर्मल आत्मा के अधिकारी होते हैं |28 ||
अब उत्साह का लक्षण करते हैं :
__ हिताहित प्राप्ति परिहार हेतुरुत्साहः ॥29॥ अन्वयार्थ :- (हितस्य) कल्याण की (प्राति:) उपलब्धि (अहितस्य) अकल्याण की (परिहारः) अप्राप्ति (हेतु) का कारण (उत्साहः) उत्साह (अस्ति) है ।
जिस कार्य के करने में अनिष्ट का त्याग और इष्ट की प्राप्ति होती है उसे उत्साह कहते हैं । वर्ग विद्वान ने भी लिखा है :
शुभाप्तिर्यत्र कर्तव्यः जायते पाप वर्जनम् । हृदयस्य परा तुष्टिः स उत्साहः प्रकीर्तितः ॥1॥
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