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नीति वाक्यामृतम्
2. दोषज दुःख :- वात, पित्त और कफ शरीर में रहते हैं । इनका अनुपात यथायोग्य रहना स्वास्थ्य है। इनकी मात्रा में कमी-वेशी होना रोग है । जिस क्षण ये कुपित होते हैं-विकृत होते हैं उस समय शरीर इन्द्रियाँ सब अस्त-व्यस्त हो जाते हैं । मन भी विकारी हो जाता है। फलतः गलतगण्डादि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। ये दुःख दोषज कहलाते है । ॥21॥
3. आगन्तुक दुःख :- वर्षा, शीत, उष्ण आदि ऋतुओं से उत्पन्न कष्ट होते हैं । अतिवष्टि, अनावष्टि आदि आकस्मिक घटनाओं से उत्पन्न पीड़ाएँ आगन्तुक कष्ट कहलाते हैं ॥22 ।।
___4. न्यक्कारजम् दुःख :- दारिद्रादि से जन्य, अपराध-दण्ड जेलखाना आदि में बध, वन्धन होना, च्छेदन भेदन की सजा मिलने पर जो दुःख होता है वह सब न्यक्कारज या तिरस्कार जन्य-अपमान से उत्पन्न कष्ट या दुःख कहा जाता है। इसमें मानहानि से मानसिक पीड़ा विशेष होती है ॥23 ॥
5. अन्तरगज दुःख :- अनादर, न्यक्कार, इच्छाविघात, अथवा अभिलषित वस्तु के नहीं मिलने से होने वाले दुःखों को अन्तरङ्गज दुःख कहते हैं । यह पांचवाँ दुःख मूल में नहीं है । संभव है संस्कृत टीकाकार ने लिखा होगा । अब दोनों लोकों में दुःखी रहने वाले व्यक्ति का स्वरूप कहते हैं :
न तस्यैहिकमामुष्मिकं च फलमस्ति यः क्लेशायासाभ्यां भवति विप्लवप्रकृतिः ॥25॥
अन्वयार्थ :- (यः) जो (क्लेशः) संक्लेश (आयासाभ्याम्) आयास श्रम के द्वारा (विप्लवप्रकृतिः) किंकर्तव्यविमूढ बुद्धि (भवति) होता है (तस्य) उसकी (ऐहिकम्) इस लोक (च) और (आमुष्मिकम्) परलोक (फलम्) फल सिद्धि (न) नहीं (भवति-अस्ति) होती है ।
__ जो व्यक्ति निरन्तर खेद और दुःखों के द्वारा नष्ट बुद्धि हो गया है उसको ऐहिक-इस लोक सम्बन्धी और पारलौकिक सुख प्राप्त नहीं हो सकता ।
विशेषार्थ :- "बुद्धेः फलं तत्त्व विचारणं च" यदि बुद्धि से तत्व का निर्णय नहीं होता तो उस बुद्धि का कोई प्रयोजन नहीं । वह व्यक्ति नष्ट बुद्धि होता है - सतत् दैन्य, ताप और पीड़ा से अभिभूत हुआ उभयलोक में कष्ट ही उठाता है । व्यास ने कहा है :
जीयते क्लेशदाभ्यां सदा का. पुरषोऽत्र यः ।
न तस्य मत्] यो लाभः कुतः स्वर्गसमुद्भवः ॥1॥ अर्थ :- जो तुच्छ बुद्धि पुरुष क्लेश और दुखों से अभिभूत हो विवेक शून्य हो जाता है उसे इस मर्त्यलोक में कोई सुख प्राप्त नहीं होता फिर परलोक में स्वर्गादि सुख कहाँ से प्राप्त हो सकते हैं । अर्थात् नहीं हो सकते। यातनाओं से मानव का मानसिक सन्तुलन नष्ट हो जाता है । उसकी विचार शक्ति नष्ट हो जाती है । फलत: शुभाशुभ कार्यों का ग्रहण व त्याग नहीं कर पाता और दोनों लोकों में दुःखी ही बना रहता है |॥25॥
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