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नीति वाक्यामृतम्
विशेषा :.. जिस वस्तु को देखकर असाच हो-विरक्त हो, प्रीति न हो उसे दुःख कहते हैं । शुक्र विद्वान । ने भी कहा है :
यत्र नो जायते प्रीतिईष्टे वाञ्छादितेऽपि वा ।
तच्छ्रेष्ठ मपि दुःखाय प्राणिनां सम्प्रजायते ॥1॥ अर्थ :- जिस वस्तु के देखने पर व धारण करने पर भी प्रीति न हो वह वस्तु अच्छी होने पर भी प्राणियों को दुःख देने वाली है । ॥ निष्कर्ष यह है कि वस्तु स्वयं में न अच्छी है न बुरी है । जिसे जो प्रिय है वही उसकी विषयभूत बनती है ।। अब सुख का लक्षण निर्देश करते हैं :
तद् दुःखमपि न दुःखं यत्र न संक्लिश्यते मनः ॥18॥ अन्वयार्थ :- (यत्र) जहाँ (मनः) मन के (संक्लिश्यते) संक्लेशित (न) नहीं होता है (तद्) वह (दुःखम्) दुःख (अपि) भी (दुःखम्) कष्ट (न) नहीं है ।
जिस वस्तु के देखने पर मन पीड़ित नहीं होता वह पदार्थ दुःखद होकर भी सुखकर होता है । यथा-क्षुधा की पीड़ा सह्य नहीं होती परन्तु उपवास करने पर वही क्षुधा आनन्द दायक प्रतीत होती हैं क्योंकि मन की उसके प्रति रुचि है, चाह हैं । अतः उसे दुःख नहीं सुखानुभव होता है । अब चार प्रकार के दुःखों का निरुपण करते हैं :
दुःखं चतुर्विधं सहजं दोषजमागन्तुकमन्तरंगं चेति ॥9॥ सहजं शुत्तधामनोभूभवं चेति ॥20॥ दोषजं वातपित्तकफ वैषम्य सम्भूतम् ॥21॥ आगन्तुकं वर्षातापादि जनितम् ॥22 ।। यच्चिान्त्यते दरिद्रय कारजम् ॥23॥
न्यक्कारावज्ञेच्छाविधातादि समुत्थमन्तरङ्गजम् ॥24॥ अर्थ :- दुःख चार प्रकार के होते हैं - 1.सहज-स्वाभाविक 2. दोषजवात, पित्त, कफ के विकार से या मानसिक चिन्ता शोकादिजन्य । 3. आगन्तुक-आकस्मिक घटना विशेष से उत्पन्न । और 4. अन्तरङ्ग-मानसिक पीड़ा।
1. सहज दुःख :- क्षुधा तृषा से उत्पन्न पीड़ा या काम, क्रोध के उत्पन्न भाव से उत्पन्न, स्त्री सेवन की अभिलाषा और उसके चिन्तन से उत्पन्न दुःख सहज दुःख कहलाते हैं । क्योंकि बिना प्रयत्न के ही इनका प्रादुर्भाव हो जाना स्वाभाविक है ।।20।
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