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नीति वाक्यामृतम्
अभ्यासाद्धार्यते विद्या विद्यया लभ्यते धम् ।
धनलाभात्सुखी मयों जायते नात्र संशयः ॥1॥ अर्थ :- जी तोड़ पुरुषार्थ-अभ्यास से उत्तम विद्या की प्राप्ति होती है, विद्या लाभ से धन-सम्पत्ति उपार्जित होती है, धन प्राति से मनुष्य सुखानुभव करता है । इसमें कोई सन्देह नहीं है । अभ्यास से प्रास विद्या चिरस्थायी हुई और कार्य काल में कार्य सम्पादन में समर्थ होती है । यथा राजकुमार की शस्त्र संचालन क्रिया सफल होती
अब अभिमान का लक्षण निर्देश किया जाता है :
प्रश्रय सत्कारादि लाभेनात्मनो यदुत्कृष्टत्व संभावनमभिमानः ॥4॥ अन्वयार्थ :- (प्रश्रयः) राजसन्मानादि से (सत्कारादि लाभेन) सम्मानादि प्राप्ति से (आत्मन:) आत्मा का (यत्) जो (उत्कृष्टत्व) उत्कर्षपना (संभावनम्) संभावना (अभिमान:) अभिमान (अस्ति) है ।
विशेषार्थ :- शिष्ट पुरुषों को राजाश्रय से अथवा समाज द्वारा जो विनय, सम्मान, आदर-सत्कारादि प्रास होता है। धन्यवाद मिलता है । शाल-दुशाला, माला-हार सम्मान में प्राप्त होते हैं । प्रसंशा मिलती है । इनसे वह अपने को सुखी मानता है । इसे ही अभिमान कहते हैं । नारद विद्वान ने भी कहा है :
सत्कार पूर्वको यो लाभः स स्तोकोऽपि सुखावहः ।
अभिमानं ततो धत्ते, साधुलोकस्य मध्यतः ॥1॥ अर्थ :- आदरपूर्वक थोडा भी धनादिक लाभ सुख देने वाला होता है क्योंकि ऐसा करने से मनुष्य की सज्जनों के मध्य में प्रतिष्ठा होती है । अब सम्प्रत्यय का लक्षण कहते हैं :
अतद्गुणे वस्तुनि तदगुणत्वेनाभिनिवेशः सम्प्रत्ययः ॥15॥ अन्वयार्थ :- (अतद्गुणे) जो गुण नहीं हैं (वस्तुनि) वस्तु में उसमें (तद्गुणत्वेन) उस गुण का आरोप करने का (अभिनिवेशः) अभिप्राय (सम्प्रत्ययः) सम्प्रत्यय कहते हैं ।
अतद्गुण वस्तु में उस गुण का आरोप करना सम्प्रत्यय है । विशेषार्थ :- निर्गुण वस्तु में नैतिक चातुर्य से परीक्षा करके उसमें गुण की प्रतिष्ठा करना सम्प्रत्यय है।
वीणा आदि के मधुर शब्द सुनकर परीक्षा करके यह निर्णीत करना कि यह सुन्दर है या नहीं ? स्पर्शन इन्द्रिय से छूकर यह कठोर है या कोमल ? नेत्रों से देखकर यह मनोहर रूप है या नहीं ? इत्यादि ज्ञान शक्तियों से पदार्थ में गुण का निर्णय करना "सम्प्रत्यय" कहलाता है । नारद विद्वान ने इस विषय में लिखा है
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