________________
----
-
--नीति वाक्यामृतम्
-
-
--
3. सम्प्रत्यय :
अविद्योऽपि गुणान्मर्त्यः स्वशक्त्या यः प्रतिष्ठयेत् । तत्सुखं जायते तस्य स्वप्रतिष्ठा समद्भवम् ।
"हारीत"
अर्थ :- विद्या विहीन मूर्ख पुरुष भी किसी चतुराई-गुण विशेष के कारण अपनी शक्ति विशेष से अपनी धाक जमा लेता है, लोक प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार लोक मर्यादा से उसे सुखानुभूति होती है । 4. इन्द्रिय विषाल्पता :
सेवनं विषयाणां यत्तन्मितं सुखकारणम् ।
अमितं च पुनस्तेषां दारिद्र्य कारणं परम् ॥4॥ अर्थ : इन्द्रिों की अपनी-अपनी योग्यता और शक्ति होती है । यदि विषयों का सेवन सीमित मात्रा में होगा तो सुख मिलेगा और शक्ति से अधिक कर लिया तो दारिद्य का हेतू बन जायेगा जिससे दुःख होगा । आयव्यय का हिसाब भी यथायोग्य सन्तुलित रहेगा तो मनुष्य सुखी रहेगा । अर्थात् आमदनी के अन्दर ही व्यय-खर्च रहने पर आदमी को क्लेश नहीं होता । सुखी रहता है । हमारे आचार्यों ने कहा है :
धर्मः सुखस्य हेतुः हेतुर्न विराधकः स्व कार्यस्य । तस्मात्सुख भंगभिया मा भूस्त्वं धर्मस्य विमुखः ॥
आत्मानु शा.
अर्थ :- वास्तविक सुख का साधन धर्म है । जो जिसका साधक होता है वह अपने कार्य का कभी भी विघात नहीं करता । अतः हे भव्य जीवो ! आप यदि सदा-बहार सुख चाहते हैं तो धर्मानुष्ठान करो देव, शास्त्र, गुरु भक्ति में लगो । उभय लोक में सुख प्राप्त होगा । अब अभ्यास का लक्षण कहते हैं :
"क्रियातिशयविपाक हेतुरभ्यासः" 13॥ अन्वयार्थ :- (क्रियायाम्) कर्त्तव्य में (अतिशय) विशेष (विपाक हेतू) फल का कारण (अभ्यासः) अभ्यास (कथ्यते) कहा जाता है ।।
विद्या प्राप्ति आदि कार्यों में सहायता प्रदान करने वाले श्रम को अभ्यास कहते हैं ।
विशेषार्थ :- प्राप्त कला, विज्ञानादि का विस्मरण न हो इसके लिए जो श्रम किया जाता है उसे अभ्यास कहते हैं। ज्ञान-विज्ञान की परिपाटी बनाये रखना, विस्मृत नहीं होने देना इसके लिए जो कुछ प्रयत्न किया जाता है उसे अभ्यास कहते हैं । हारीत का कथन :
15