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________________ -नीति वाक्यामृतम् । समृद्धस्यापि मर्त्यस्य मनो यदि विरागकृत् । दुःखी स परिज्ञेयो मनस्तुष्टया सुखं यतः ॥ अर्थ :- मन के सन्तुष्ट रहने से सुख मिलता है । अत: जिस वैभवशाली का मन स्त्री, पुत्र, हार श्रृंगारादि में प्रीति प्राप्त नहीं करता, भोगों की रुचि नहीं होती, इसके विपरीति उसे विकर्षण होता हो । उन पदार्थों से वैराग्य हो रहा हो तो नीतिकार कहते हैं वही दु:ख है । क्योंकि यह नीति विरुद्ध है । अब सुख प्राप्ति के उपाय कहते हैं : अभ्यासाभिमानसंप्रत्यय विषयाः सुखस्य कारणानि ॥12॥ अन्वयार्थ :- (अभ्यास) शास्त्राध्ययन (अभिमान) अहंकार-स्वाभिमान (सम्प्रत्ययाः) व्यावहारिक (विषयाः) विषयोपलब्धि (सुखस्य) सुख के (कारणानि) हेतु (सन्ति) हैं । विशेषार्थ :- आगमाभ्यास करना । आगम विहित विधि-विधान, क्रियाकाण्ड में नैपुण्य प्राप्त कर तदनुकूल कर्तव्य पालन करना । समाज में प्रतिष्ठा, ख्याति प्राप्त होना, प्रभुत्व जमना, राज्य-सम्मानादि मिलना । व्यवहार ज्ञान से वादित्रादि कला-विज्ञान में कौशल प्रास करना । इन्द्रियों में विविध गहन विषयों में प्रविष्ट होने की सामर्थ्य पैदा होना । तथा मन और इन्द्रियों को सन्तुष्ट करने वाले विषयों की उपलब्धि ये चार सुख के कारण बतलाये हैं । विद्वानों ने कहा है : 1. पूजा: अभ्यासाचा भवेद्विधा तथा च निजकर्मणः । तया पूजामवाप्नोति तस्याः स्यात् सर्वदा सुखी m॥ अर्थ :- मनुष्यों को शास्त्रभ्यास से सुविधा प्राप्त होती है । वह अपने सत्पुरुषार्थ से योग्य कार्यों का सम्पादन करने में समर्थ होता है । जिससे उसे लोक में यश, सम्मान, ख्याति, पूजादि प्राप्त होते हैं और उनसे सुखानुभवआनन्द प्राप्त होता है। 2. मान : सन्मान पूर्वको लाभो सुस्तोकोऽपि सुखावहः । मानहीनः प्रभूतोऽपि साधुभिर्न प्रशस्यते ॥2॥ आदर के साथ थोडा भी धनादि लाभ सुख का कारण होता है । मान भंग कर अधिक भी लाभ पग-पग पर दु:ख दायक होता है । क्योंकि साधु जन सम्मान विहीन की प्रशंसा नहीं करते । इज्जत है तो अल्पविषय भी सुख निमित्तक हैं ! मान मर्यादा विहीन का प्रभूत वैभव भी व्यर्थ है । 152
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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