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नीति वाक्यामृतम्
विशेषार्थ :- ध्यान ज्ञान का प्रकाशक है और ज्ञान ध्यान का साधक है । ध्यान और ज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं । आत्मा ध्यान और इन्द्रियों के माध्यम से क्रमशः परोक्ष देश विप्रकृष्ट-यथा सुमेरु, विदेह आदि, काल विप्रकृष्ट (ढके) यथा-राम, खेचर, रावणादि, सूक्ष्म-परमाणु आदि ये इन्द्रिय ज्ञान के विषय नहीं बनते अर्थात् इन्द्रियों से ग्रहण नहीं हो सकते और प्रत्यक्ष समीपवर्ती पदार्थों के स्वरूप को जानने को "ज्ञान" कहते हैं 1 इससे स्पष्ट है इन्द्रिय जन्य और अतीन्द्रिय के भेद से ज्ञान दो प्रकार का होता है ।
अब सुख का लक्षण कहते हैं :
सुखं प्रीतिः ॥10॥ अन्वयार्थ :- (प्रीतिः) आनन्द (सुखम्) सुख (अस्ति) है । जिसके द्वारा मन, इन्द्रियाँ और आत्मा प्रफुल्ल-आनन्दित हो उसे सुख कहते हैं । पूज्यपाद स्वामी ने कहा
"ज्ञानफलम् सौख्यमच्यवनम् ।।" अर्थात् ज्ञान का अविनश्वर फल ही सुख है । गुणभद्र स्वामी कहते हैं "तत्सुखं यत्र नासुखम्" सुख वह है जहां असुख अर्थात् दुःख न हो । विद्वान हारीत कहता है :
मनसश्चेन्द्रियाणां च यत्रानन्दः प्रजायते । दृष्टः वा भक्षिते कपि तत्सुखं सम्प्रकीर्तितम् ॥1॥
अथ :- जिस पदार्थ के देखने या भक्षण करने से मन और इन्द्रियों को आनन्द प्राप्त होता है उसे "सुख" कहते हैं । यह सब लौकिक सुखानुभव हैं । इन्द्रिय विषय जन्य सुख अस्थाई और अन्त में दु:खोत्पादक होता है । यथार्थ सुख तो अतीन्द्रिय आत्मोत्थ सुख आनन्द को सुख माना है Inor अब दुःख का लक्षण कहते हैं :
तत्सुखमप्यसुखं यत्र नास्ति मनोनिवृत्तिः ॥1॥ अन्वयार्थ :- (तत्) वह (सुखम्) सुख (अपि) भी (असुखम्) दुःख है (यत्र) जहाँ (मनोनिवृत्तिः) मन की सन्तुष्टि (नास्ति) नहीं है ।
जिन पत्र-कलत्र, आसन, शयन, भोजनादि में मन सन्तुष्ट न हो वे भी "दु:ख" ही हैं । क्योंकि उनसे अन्त में असन्तुष्ट मन विरक्त होता है वैराग्य को प्राप्त होता है ।
विशेषार्थ :- सांसारिक सुख विषयोत्थ होता है और मन इन्द्रियों को हर्षोत्फुल्ल करता है । यदि मन, इन्द्रियाँ आह्लादित नहीं होती हैं तो वह दुःख समझा जाता है और वे विषय-साधन दुःख के हेतू माने जाते हैं । वर्ग विद्वान ने भी लिखा है:
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