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नीति वाक्यामृतम्
इन्द्रियों का लक्षण निर्देश करते हैं :
आत्मनो विषयानुभवनद्वाराणीन्द्रियाणि ॥7॥ अन्वयार्थ :.. (आत्मनः) आत्मा के (विषयानुभवन) विषयभोगों का अनुभव करने का (द्वाराणि) दरवाजा (इन्द्रियाणि) इन्द्रियाँ होती हैं ।
इन्द्रियों के झरोखों से आत्मा, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द आदि को ग्रहण करता है ।
विशेषार्थ :- स्पर्शन इन्द्रिय आठ प्रकार के स्पर्श-शीत, ऊष्ण, मृदु-कठोर, चिकना-रुखडा और हलकाभारी आदि को ग्रहण करती है.
खट्टा, मीठा, चरपरा, आम्ल और चरपरा आदि रसों का स्वाद जिह्वा से होता है । सुगंध और दुर्गन्ध नासिका द्वारा होता है ।
काला, पीला, लाल, नीला और सफेद आदि रंगों का ग्रहण चक्षुरिन्द्रिय द्वारा होता है । और इसी प्रकार शुभाशुभ शब्दों, रागों का ज्ञान कर्णेन्द्रिय से किया जाता है । इस प्रकार आत्मा इन इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण करती है । रैभ्य विद्वान ने भी कहा है :
इन्द्रियाणि निजान् ग्राह्यचविषयान् स पृथक् पृथक् । आत्मनः संप्रयच्छन्ति सुभृत्याः सुप्रभोर्य था ॥1॥
अर्थ :- जिस प्रकार स्वामी योग्य-आज्ञाकारी सेवकों की सहायता से कार्य सिद्ध करता है, उसी प्रकार आत्मा भी इन्द्रियों की सहायता से पृथक् पृथक् विषयों के सेवन में प्रवृत्ति करता है । व्यावहारिक दृष्टि से इन्द्रिय विषय जन्म सुख-दुःखादि इन्द्रियों द्वारा आत्मा प्राप्त करता है । अब इन्द्रियों के विषयों का निरूपण करते हैं :
शब्द स्पर्श रसरूपगन्धा हि विषयाः ॥8॥
अन्वयार्थ :- शब्द (सुनने योग्य वर्गणाएँ) (स्पर्श:) छूने योग्य पदार्थ (रसः) चखने के पदार्थ (रूप:) दृष्टव्य वस्तुएँ (गन्धाः) सूंघने योग्य वस्तु (हि) निश्चय से (विषयाः) विषय (भवन्ति) होते हैं । अब जान के स्वरूप को कहते हैं :
समगधीन्द्रिय द्वारेण विप्रकृष्ट सन्निकृष्टावबोधो ज्ञानम् ॥9॥ अन्वयार्थ :- (समाधिः) ध्यान (इन्दियद्वारेण) पाँच इन्द्रिय रूप द्वारों से (विप्रकृष्टः) काल-क्षेत्र, द्रव्य से प्रच्छादित, सामने प्रत्यक्ष (सन्निकृष्टः) छूने योग्य पदार्थों का (अवबोधः) ज्ञान-जानकारी होना (ज्ञानम्) ज्ञान (मन्तव्यम्) जानना चाहिए ।