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नीति वाक्यामृतम् - - - Nजाना जाता है वही शरीर, इन्द्रिय और मन से पृथक, चैतन्यात्मक, अनाद्यनिधन, ज्ञाता-दृष्टा और अखण्ड आत्मद्रव्य
शरीरादि से आत्मा भिन्न है यह युक्तिपूर्वक दिखाते हैं :
असत्यात्मनः प्रेत्यभावे विदुषां विफलं खलु सर्वमनुष्ठानम् ॥5॥ अन्वयार्थ :- (आत्मनः) आत्मा के (असति) नहीं होने पर (प्रेत्यभावे) परलोक में फलने वाले (विदुषाम्) विद्वानों के (सर्वभ) सम्पूर्ण (अनुष्ठानम्) क्रिया-कलाप-पुरुषार्थ, अनुष्ठानादि (खलु) निश्चय से (विफलम्) निष्फल (भविष्यति) हो जायेंगे ।
यदि आत्मा का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया जायेगा तो आचार्यों द्वारा प्रतिपादित सम्पूर्ण धर्मानुष्ठान व्यर्थहो जायेंगे ।
विशेषार्थ :- यदि आत्मा का पुनर्जन्म स्वीकार नहीं किया जायेगा तो कौन बुद्धिमान पारलौकिक धर्मानुष्ठान करेगा, तपश्चरण, उपसर्ग, परीषह सहन, विद्याध्ययन-ज्ञानार्जन, व्रतोपवासादि कौन करेगा ? क्यों किये जायेंगे ? प्राणिरक्षा, दान, जापादि सम्पूर्ण अनुष्ठान निष्फल सिद्ध होंगे । आत्मा का स्वर्गादिगमन, पुनराजन्म यदि नहीं स्वीकार किया जायेगा तो कष्ट सहिष्णुता नाम का कोई प्रयत्न ही न रहेगा । आत्मा का अस्तित्व ही नहीं रहेगा तो कौन सुख भोगेगा ? फिर सुख के उपाय और दुःख से बचने का प्रयत्न भी कोई क्यों करेंगे ? परलोक में धर्मानुष्ठानादि का विधान आगम विहित देखा जाता है ।।
"प्रेक्षापूर्वकारिणां प्रवृत्तेः प्रयोजनेन व्याप्तत्वात् ।।" __ अर्थात् पूर्वापर हिताहित विचारज्ञ-विद्वानों के सत्कार्य, पारलौकिक सिद्धि के उपाय रूप में अनुष्ठित किये जाते हैं । निष्प्रयोजन कोई मन्दबुद्धि भी प्रयत्न नहीं करता । अत: विद्वानों का उभयलोक सिद्धि के अनुष्ठान सफल ही होते हैं । नियमित सिद्धान्त के अनुसार दीक्षा, व्रतादिकों में प्रवृत्ति देखी जाती है । इस प्रकार श्रेष्ठ, शिष्ट पुरुषों की प्रवृत्तियाँ आत्मद्रव्य की सिद्धि को प्रमाणित करते हैं । "निस्प्रयोजन मन्दोऽपि न प्रवर्तते" बिना प्रयोजन के मन्द बुद्धि-दुर्बुद्धि भी कार्यों में प्रवृत्त नहीं होता । याज्ञवल्क्य ने भी कहा है :
आत्मा सर्वस्य लोकस्य सर्वं भुक्ते शुभाशुभम् । मृतस्यान्यत्समासाद्य स्वकर्माहं कलेवरम् ।।1॥
अर्थ :- प्राणी मात्र की आत्मा मरणान्तर अपने-अपने कर्मानुसार नवीन शरीर को प्राप्त कर शुभाशुभ कर्मों के फल सुख दुःख को भोगता है । इस प्रकार युक्ति, प्रमाण और तर्कों द्वारा आत्मा का त्रैकालवछन्न अस्तित्व सिद्ध है । परलोक भी सिद्ध है । संसार-मक्ति सिद्ध है ।
अब मन का स्वरूप बताते हैं :
यतः स्मृतिः प्रत्यवमर्षणमूहापोहनं शिक्षालाप क्रियाग्रहणं च भवति तन्मनः ।।6 ॥
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