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नीति वाक्यामृतम्
तपः कुर्वन्ति ये मा वा चेद् वृद्धान् समुपासते । तीवा व्यसनकान्तारं यान्ति पुण्यां गतिं नराः ॥13॥
श्लो.सं.पृ.242 अर्थ :- कोई व्यक्ति तप करे या न भी करे, किन्तु वृद्ध-ज्ञानवृद्ध-तप वृद्धों की संगति उपासनादि करते हैं तो वे मानव संकटरूपी अटवी को पारकर पुण्यगति को स्वर्गादि को प्राप्त कर लेता है । और भी कहते हैं :
मनोऽभिमतं निःशेषफलसम्पादन-क्षमम् । कल्पवृक्ष इवोदारं साहचर्य महात्मनाम् ॥6॥
श्लो.सं.पृ.240 __ अर्थ :- महात्माओं की संगति मनचाहे समस्त फलों को प्राप्त कराने में समर्थ कल्पवृक्ष के समान उदार
है 16 !!
सारांश यह है कि शिक्षक-गुरुजन-विद्वान्, नीतिज्ञ, सदाचारी, कुलीन, भद्र, विनम्र, धर्मबुद्धि होना चाहिए । उनके शिष्य भी तदनुकूल, शीलवान, शिष्टाचारी, धर्मात्मा, न्यायप्रिय, पापभीरू और ऐहिक एवं पारलौकिक सुखों के भोक्ता बनेंगे 173॥
कुलीन और सदाचारी शिक्षकों से लाभ :--
नवेषु मृद्भाजनेषु लग्नः संस्कारो ब्रह्मणाप्यन्यथा कर्तुं न शक्यते 174।। अन्वयार्थ :- (नवेषु) नवीन (मृद्भाजनेषु) मिट्टी के पात्र पर (लग्नः) लगे हुए (संस्कारः) प्रभाव-संस्कारों को (ब्रह्मणा) ब्रह्मा (अपि) भी (अन्यथा) अन्य प्रकार (कर्तुम) करने को (न शक्यते) समर्थ नहीं हो सकता
कच्चे मिट्टी के पात्रों-बर्तनों पर जो भी चित्रकारी चित्रित हो जाती है - अग्नि का संस्कार होने पर उन्हें ब्रह्मा भी मिटाने में समर्थ नहीं हो सकता है । इसी प्रकार सुकोमल बच्चों-मानव शिशुओं के मृदु-आर्द्र चित्त में बचपन के शुभ-अशुभ-अच्छे बुरे संस्कारों को परिवर्तित करना अति कठिन-दुर्लभ है । बदला नहीं जा सकता ।
विशेषार्थ :- बचपन में नन्हें सुकोमल बालक-बालिकाएँ मिट्टी के कच्चे घड़ों के समान नम्र रहते हैं उनके ऊपर वाह्य वातावरण का प्रभाव जो कुछ भी अच्छा-बुरा पड़ता है अमिट-अंकित हो जाता है । पुनः उसे अन्यथा करना असंभव है । अभिप्राय यह है कि गुरूजनों को बच्चों पर उत्तम संस्कार अंकित करना चाहिए । वर्ग का अभिप्राय है कि -
कुविद्यां वा सुविधां वा प्रथमं यः पठेन्नरः ।
तथा कृत्यानि कुर्वाणो न कथंचिन्निवर्तते ॥1॥ अर्थ :- जो मनुष्य प्रथम-बालावस्था में सुविद्या या कुविधा अच्छी--बुरी उत्तम-अनुत्तम विद्याभ्यास करता ।
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