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नीति वाक्यामृतम्
अर्थ :- नास्तिकों के सिद्धान्त शिष्य को सुधा तुल्य प्रतीत होते हैं । परन्तु वह परलोक में विषतुल्य घातक दु:खदायक सिद्ध होता है । यदि इस प्रकार का कष्टदायक न होता तो अमृत समान मानना उचित है । आचार्य कुन्दकुन्द देव भी यही अभिप्राय व्यक्त करते हैं :
पशुभ्योऽयं नरो यावान् साधुर्भवति भूतले । अशिक्षितेभ्यो वरस्तावान् शिक्षितोऽप्यस्ति विश्रुतः ॥10॥
कुरल
हिन्दी -
पशुओं से जितना अधिक, उत्तम नर है तात । बस उतना ही मूर्ख से, शिक्षित वर विख्यात 110॥
प.च्छे.41
अर्थ :- मनुष्य पशुओं से जितना उच्च है ? इसी प्रकार अशिक्षितों से योग्य, शिक्षित उतना ही श्रेष्ठ होता है । अतः समीचीन शिक्षा अमृत है और चार्वाकादि नास्तिकों का विष है । योग्य शिक्षा प्राप्त करना मानव के लिए कल्याणकारी होता है 17211 गुरुजनों के अनुकूल शिष्यों का विवेचन :
गुरुजनशीलमनुसरन्ति प्रायेण शिष्याः ॥73॥ अर्थ :- (प्रायेण) प्रायः कर (शिष्याः) योग्य विद्यार्थी (गुरुजनशीलम्) गुरुजनों के स्वभाव का (अनुसरन्ति) अनुशरण करते हैं।
शिक्षार्थी प्रायः कर बालक वत् अपने गुरुजनों का - शिक्षकों का अनुकरण करते हैं ।
विशेषार्थ :- शिष्य वर्ग बहुधा अपने शिक्षकों के स्वभाव, आचार-विचार, शीलाचार, सदाचारादि का ग्राहक होता है । उनके अनुकूल वृत्ति करने वाले होते हैं । इसी प्रकार शिक्षक-गुरु यदि अनैतिक दुराचारी, अशिष्ट होगा तो शिष्य समुदाय भी वैसा ही बन जायेगा । वर्ग विद्वान ने भी लिखा है :
यादृशान् सेवते मत्यस्ताइक् चेष्टा प्रजायते ।
यादृशं स्पृशते देशं वायुस्तदगन्धमावहेत् ॥1॥ अर्थ :- जिस प्रकार पवन सुरभित प्रदेश-उद्यानादि का स्पर्श करती हुई बहती है तो सुगन्धित हो जाती है और दुर्गन्धित-श्मशानादि प्रदेश को स्पर्शकर असुरभित बन जाती है, उसी प्रकार मनुष्य जैसे दुष्ट या शिष्ट, असद, सद् पुरुष की सेवा करता है उसी समान दुर्जन व सज्जन बन जाता है । सत्संगति का फल अतुल, अनुपम और मिष्ठ होता है -
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