________________
नीति वाक्यामृतम् । ___ अन्वयार्थ :- (अज्ञानम्) मूढता (वरम्) श्रेष्ठ है (अशिष्ट) दुर्जन (जन) मनुष्य की (सेवया) सेवा द्वारा (विद्या) ज्ञानाभ्यास (न) श्रेष्ठ नहीं ।
दुष्ट पुरुष की सेवाकर विद्यार्जन करने की अपेक्षा अनपढ़-मूर्ख रहना श्रेष्ठ है ।
विशेषार्थ :- भूखा रहना अच्छा है, किन्तु विषभक्षण कोई श्रेष्ठ नहीं समझ सकता । इसी प्रकार मुर्ख रहना अच्छा है, दुर्जन-दुराचारी-शिक्षक की सेवा कर विद्यार्जन करना उचित नहीं है । हारीत कहता है
वरं जनस्य मूर्खत्वं नाशिष्ट जनसेवया ।
पाण्डित्यं यस्य संसर्गात् पापात्मा जायते नृपः ॥1॥ अर्थ :- जिसके साहचर्य से राजा पाप क्रियाओं में प्रवृत्त हो, ऐसे दुष्टजन से विद्याध्ययन करना उचित नहीं। उसकी अपेक्षा तो मूर्ख रहना ही उत्तम है ।
कुसंगति पाप को बढ़ाती है, कुमति का संचय करती है, कीर्ति रूपी स्त्री नष्ट होती है, धर्म का विध्वंश। करती है, विपत्ति को विस्तृत करती है, सम्पत्ति को नष्ट करती है, नीति और विनय का घात करती है, क्रोध उत्पन्न करती है और शान्ति को दूर करती है । इस प्रकार दुर्जन संगति उभयलोक को नष्ट करती है । आचार्य कहते
अहो दुर्जनसंसर्गान्मानहानि पदे-पदे । पावको लौहसंगेन मुद्गरैरभिहन्यते ॥2॥
श्लो.सं.पृ.428
अर्थ :- दुर्जन की सङ्गगति से पद-पद पर मानहानि सहन करनी पड़ती है । यह बड़ा आश्चर्य है । अग्नि लौह की संगति करने से मुद्गर-धनों से पीटी जाती है । सारांश यह है कि स्वविवेक जाग्रत करना चाहिए, एवं विवेकी की सङ्गति करना उत्तम-उचित कार्य है । उक्त कथन का दृष्टान्त देते हैं:
अलं तेनामृतेन यत्रास्ति विषसंसर्गः ॥72॥ अन्वयार्थ :- (तेन) उस (अमृतेन) अमृत से (अलम्) क्या प्रयोजन (यत्र) जहाँ (विष संसर्ग:) विष मिला। (अस्ति ) है।
विषाक्त अमृत निषेव्य नहीं हो सकता ।
विशेषार्थ :- जिस प्रकार विष मिश्रित अमृत मृत्यु का कारण होता है, उसी प्रकार अमृत समान विद्या भी दुष्टपुरुष के संसर्ग से हानि कारक होती है । यथा एकलव्य ने शब्दभेदी वाणविद्या पाकर बेचारे मूक-निर्दोष कुत्ते का मुख भेदन कर दिया । अत: हिंसा पापार्जन कर दुर्गति का पात्र बना । नारद विद्वान ने भी कहा है :
नास्तिकानां मतं शिष्यः पीयूषमिव मन्यते । दुःखावहं परे लोके नोचेद्विषमिव स्मृतम् ॥1॥
138