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नीति वाक्यामृतम्
"(नरपतिः) भूपति (इह) इस (लोके) संसार में (च) और (स्वर्गे) स्वर्ग लोक में (महीयते) पूज्य होता है ।
जो राजा उत्तम पुरुषों के साथ नम्रता का व्यवहार करता है वह उभय-लोक में पूज्य हो जाता है ।
विशेषार्थ :- विनय को आचार्यों ने मुक्ति का द्वार बताया है । जिसके द्वारा अशुभ-पाप कर्म चुन-चुन कर निकाल दिये जाते हैं उसे विनय कहते हैं । विनय से मनुष्य 'महान् बनता है । कवि की युक्ति है कि
" । झाड पात सब बह गये दूब खूब की खूब ।।" वर्षा-तूफान आने पर बड़े-बड़े वृक्ष भी उखड़ कर बह जाते हैं, परन्तु दूब क्योंकि यह विनम्र भूमि पर मस्तक लगाये रहती है तो आनन्द से समस्त तूफानों को सहकर भी हरी-भरी, फैली हुयी रहती है । उसकी कोई पति नहीं होती। विद्यारित लिखता है :
साधु पूजापरो राजा माहात्म्यं प्राप्य भूतले । स्वर्गगतस्ततो देवैरिन्द्रायैरपि पूज्यते ॥1॥
अर्थ :- जो राजा शिष्ट पुरुषों की भक्ति करने में तत्पर है वह परलोक में माहात्म्य-वडप्पन को प्राप्त कर स्वर्ग में देवों और इन्द्रों से भी पूजित होता है । योग्य राजा का चित्र निम्न प्रकार प्रकट होता है
किं चिंत्र यदि राजनीति निपुणो राजा भवेद्धार्मिकः ।। अर्थ :- यदि राज्य संचालन कला में निपुण राजा धर्मात्मा भी हो तो क्या आश्चर्य है ? कुछ भी नहीं । अभिप्राय यह है कि धर्मात्मा और सदाचारी का अनन्य सम्बन्ध है । धर्म की आधार विनय है । विनय से राजा, महाराजा मान्यता प्राप्त करते हैं । अतः राजसत्ता पाकर अहंकारी नहीं होना चाहिए । तभी राजा प्रजावत्सल और सर्वप्रिय हो सकता है 1 अन्यथा उसका यश विस्तृत नहीं हो सकता ।
राजा का माहात्म्य
राजा हि परमं दैव तं नासौ कस्मैचित् प्रणमत्यन्यत्र गुरुजनेभ्यः ।1700
अन्वयार्थ :- (हि) निश्चय ही (राजा) पृथिवीपति (परमम्) उत्कृष्ट (दैवतम्) देवस्वरूप (भवति) होता है (असौ) वह (गुरुजनेभ्यः) पूज्यपुरुषों के (अन्यत्र) सिवाय अन्य (कस्मैचित्) किसी के लिए (न) नहीं (प्रणमन्ति) नमस्कार करता है ।
भाग्यशाली राजा सच्चे देव शास्त्र, गुरु, धर्म और माता-पिता आदि के सिवाय किसी अन्य को नमस्कार नहीं करता है । भगवजिन सेनाचार्य जी ने कहा है "प्रतिवध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजा व्यतिक्रमः ॥" (आदि.पु.) अर्थात् पूज्यों की पूजा का उल्लंधन करने से कल्याण के मार्ग में रुकावट आ जाती है । इसलिए देव, गुरु और धर्म तथा माता-पिता आदि गुरुजनों की भक्ति करना प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है । दुष्टपुरुष से विद्या प्राप्त करने का निषेध :
वरमज्ञानं नाशिष्टजनसेवया विद्या 171॥
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