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________________ - नीति वाक्यामृतम् । अब सदाचारी की संगति से होने वाले लाभ का निर्देश करते हैं : अनधीयानोऽपि विशिष्टजन संसर्गात् परां व्युत्पत्तिमवाप्नोति ।।66॥ अन्वयार्थ :- (अनधीयान:) विद्याध्ययन नहीं करने पर (अपि) भी (विशिष्टजन) विद्वानों के (संसर्गात) सम्पर्क से (पराम्) उत्कृष्ट (व्युत्पत्ति) ज्ञान-गरिमा (अवाप्नोति) प्राप्त कर लेता है । विद्याभ्यास के बिना भी विद्वज्जनों की संगति करने वाला विद्वान बन जाता है । विशेषार्थ :- सत्संग की बड़ी महिमा है । मूर्ख भी चतुर हो जाता है । सत्संगति रूपी अमृत के प्रवाह से पवित्रित मनुष्यों के हृदय में ज्ञान लक्ष्मी, विवेक से प्रसन्न होती हुयी पादन्यास करती है अर्थात् बसती है । आचार्य कहते हैं - शीतांशु रश्मि सम्पाद् विसर्पति यथाम्बुधिः । तथा सवतसंसर्गान्नृणां प्रज्ञा पयोनिधिः ।। 2॥ श्लो. सं. पा. 40 अर्थ :- चन्द्रमा की किरणों के सम्पर्क से जिस प्रकार समुद्रवृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार सदाचारीविद्वानों की संगति से मनुष्यों का प्रज्ञारूपी सागर उमड़ता है-बृद्धिंगत होता है | व्यास ने भी कहा है विवेकी साधुसङ्गेन जडोऽपि हि प्रजायते । चन्द्रांशु सेवनान्नूनं यद्वच्च कुमुदाकरः ।।1॥ अर्थ :- जिस प्रकार चन्द्रमा की निर्मल किरणों के सम्पर्क से कुमुदवन युक्त सरोवर प्रफुल्ल होता हैप्रमुदित-खिल जाते हैं-कमलिनी विकसित हो जाती हैं उसी प्रकार विवेकी साधुओं की सङ्गति से जड़ बुद्धि भी सुबुद्धि हो जाता है । उसका विवेक जाग्रत हो जाता है । संसार में बहुत से पदार्थ शीतल होते हैं परन्तु साधु सङ्गति से बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं है । कहा भी है : चन्दनं शीतलं लोके चन्दनादपि चन्द्रमाः । चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ।।8।। श्लो.सं.पा.40 अर्थ :- भूमण्डल पर चन्दन-मलयागिरि चन्दन को उत्तम शीतल कहा गया है उससे भी अधिक चन्द्र को माना जाता है परन्तु चन्दन एवं चन्द्रमा से भी बढ़कर-उत्तम साधु की संगति है । चन्दन और चन्द्रमा की शीतलता शरीर की दाह मिटा सकता है, आत्मा की नहीं । परन्तु साधु-विद्वान-विवेकी की संगति आत्मा को शान्ति प्रदान करती है । हृदय की जड़ता नष्ट हो जाती है । उक्त विषय को दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं : अन्यैव काचित् खलु छायोपजल तरुणाम् ।।67॥ 134.
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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