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________________ नीतिवाक्यामृतम् "अपनी कण्ठी माला ।" हृष्ट-पुष्ट प्रजा उन्मार्गी न हो जाये इससे आदिप्रभु ने अध्यात्म का स्वरूप समझाया । इसी विद्या का विस्तृत विवरण भगवान ने केवली बनकर अपनी भव्य दिव्यध्वनि द्वारा समझाया । अहिंसा, स्याद्वाद, अनेकान्त सिद्धान्त, ईश्वर-परमात्मा सम्बन्धी सर्वोत्कृष्ट विचार, सप्ततत्व, षड्द्रव्य, नव पदार्थ, पञ्चास्तिकाय आदि का विशद वर्णन अकाट्य अबाधित युक्तियों से भरपूर प्रमाणित दिव्य सन्देश दिया । इस प्रकार संक्षिप्त इति वृत्त - इतिहास है । इनका वेत्ता कुटुम्ब, समाज, देश, राज्य, राष्ट्र और विश्व के उद्धार करने में समर्थ होता है । पुनः आन्वीक्षिकीविद्या से होने वाले लाभ कहते हैं : चेतयते च विद्यावृद्ध सेवायाम् ||64 ॥ -: अन्वयार्थ :- (च) और कहते हैं (विद्यावृद्ध सेवायाम्) विद्यावृद्ध वयोवृद्ध की सेवा में (येतयते) आन्वीक्षिकी विद्यापठित संलग्न होता है । आन्वीक्षिकीविद्या का अध्येता-निपुण मनुष्य, विद्याभ्यासी बहुश्रुत विद्वानों की सेवा में संलग्न होता है । जो राजनीति और धर्मनीति आदि के विद्वान हैं वे वृद्ध कहलाते हैं न कि केवल केश सफेद होने वाले । अतः विवेकी पुरुष और राजा का कर्त्तव्य है कि वह सभी विद्याओं का तलस्पर्शी अध्ययन कर विद्वानों की सेवा में सदैव तत्पर रहें 164 | वृद्ध की परिभाषा करते हुआ नीतिकार नारद कहा है न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः । यो वै युवाध्यधीयानस्तं देवा: स्थविरं विदुः ।। -: अर्थ :- केवल मात्र शिर पर सफेद चांदी से बाल हो जाने से कोई मानव वृद्ध नहीं कहा जाता, अपितु जो जवान होकर भी विद्याभ्यास करता है, कठोर श्रम कर विद्यार्जन करता है, विद्वानों की मान्यता में वही वृद्ध 1164 11 अब अनभ्यास विद्या और विद्वानों की संगति से रहित की हानि कहते हैं " 'अजात विद्यावृद्ध संयोगो हि राजा निरङ्कुशोगज इव सद्यो विनश्यति 1165 11 अन्वयार्थ :- (विद्या वृद्ध) शिक्षा और वृद्ध के (संयोगः) सम्बन्ध से (अजात) रहित (राजा) नृपति (हि) निश्चय से ( निरङकुश ) अंकुशरहित (गज) हाथी (इव) के समान (सद्यः) शीघ्र ही ( विनश्यति) नष्ट हो जाता है । मूर्ख और श्रेष्ठ एवं ज्येष्ठ विद्वानों की संगति विहीन भूपति अतिशीघ्र राज्यभ्रष्ट हो जाता है। ऋषिपुत्र ने भी कहा है : यो विद्यां बोस नो राजा वृद्धान्नैवोपसेवते । स शीघ्रं नाशमायाति निरंकुश इव द्विपः ॥11 ॥ अर्थ :- विद्याओं से अनभिज्ञ और ज्ञानवृद्धों विद्वानों की सगति नहीं करने वाला राजा बिना अंकुश के गज के समान उन्मार्गगामी हो शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है ।। निष्कर्ष यह है इसलोक और परलोक में कल्याण-श्रेय चाहने वाले राज पुरुषों को व अन्य पुरुषों को विद्याभ्यास और श्रेष्ठ विद्वानों की संगति अवश्य करनी चाहिए 1165 ॥ 133
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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