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नीति वाक्यामृतम्
अर्थ :- आन्वीक्षिकीविद्या में आत्मज्ञान का, त्रयी में धर्म व अधम का वार्ता में कृषि करने से होने वाला उत्तम फल और न करने से कुफल का, एवं दण्ड नीति में न्याय और अन्याय व सन्धिविग्रहादि षड्गुणों के औचित्यअनौचित्य का वर्णन है ।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विचार करने पर विदित होता है कि मनु के अनुयायी त्रयी, वार्ता और दण्डनीति, वृहस्पतिसिद्धान्त को मानने वाले वार्ता और दण्डनीति, तथा शुक्राचार्य के अनुयायी केवल दण्डनीति को मानते हैं। परन्तु जैनाचार्य आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति चारों ही विद्याओं को मानते हैं। क्योंकि ये चारों ही सूर्य के प्रकाशवत् पृथक् -2 विषयों को स्पष्ट करती हैं । आर्य चाणक्य को भी चारों विद्याएँ इष्ट हैं। वे कहते हैं कि "विद्याओं की वास्तविकता यही है कि उनसे धर्म-अधर्म-कर्तव्याकर्त्तव्य का बोध होता है ।" विशेष ज्ञान को देखिये (कौटिल्य अर्थशास्त्र पृष्ठ 8 से 9 तक) ।
आगमानुकूल - इतिहास प्रमाण से विदित होता है कि इतिहास के आदि काल में भगवान ऋषभदेव ने प्रजा के हितार्थ उनके जीवन के उपायों हेतु वार्ता विद्या का प्रतिपादन किया था। आदिपुराण में भगवज्जिन सेनाचार्य ने लिखा है :
अमिषिः कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव कर्माणीमानि षोढा स्युः प्रजाजीवन हेतवे
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कर्मभूमि के प्रारम्भ में कल्पवृक्षों के अभाव हो जाने पर त्रसित प्रजा के प्राण रक्षणार्थ भगवान ऋषभदेव तीर्थकर ने जीविका के साधन - 1. असि 2. मषि, 3. कृषि, 4. वाणिज्य 5. शिल्प और 6. कला आदि की शिक्षा प्रदान की थी। स्वामी समन्तभद्रजी भी यही कहते हैं।
वृहत्स्वयभूस्तोत्र में
प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः । शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः ।।
वा J
॥ 11 ॥
आदि पर्व 16.
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जिस प्रकार ऊषर भूमि में उपज संभव नहीं उसी प्रकार क्षुधित, पीड़ित प्रजा में आध्यात्म्य, त्रयी, एवं ललितकलाओं का उद्भव- शिक्षण असंभव है। अतः प्रथम आजीविका के साधनों का प्रकाश किया अनन्तर पारस्परिक सम्बन्ध व कर्त्तव्यों का यथोयित व्यवहार करने के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों एवं चारों आश्रमोंब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास-यति की व्यवस्था की । तथा धार्मिक सत्कर्मों के पालन का उपदेश दिया।
तत्पश्चात् त्रयी विद्या का प्रचार किया और समस्त कार्य सुचारू रूप से चलते रहें, तदर्थं दण्डनीति भी निर्धारित की। कृष्यादिकर्मों से प्राप्त सम्पत्ति का 16वाँ भाग राजकोष में दिये जाने का विधान किया । इससे सैनिक संगठन किया गया । इस प्रकार दण्डनीति प्रचलित हुयी ।
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शत्रुवर्ग से रक्षित प्रजा को पुण्य-पाप का ज्ञान कराया। शिष्टाचार प्रपालन, दुराचार निवारण दण्डनीति द्वारा किया गया। इस प्रकार तीनों नीतिविद्याओं का प्रयोग होने के अनन्तर चतुर्थी आन्वीक्षिकी विद्या का प्रयोग श्री आदीश्वर प्रजापति ने सिखाया। सबको कर्तव्यारूढ़ किया । अन्यायी, प्रजापीडक, आततायी लोगों से रक्षा के लिए फौजदारी, दीवानी कानून-विधान बनाये इस प्रकार प्रजा के अमन-चैन की व्यवस्था कर प्रभु ने सर्व विद्याओं में शिरोमणि, कान्तिमान प्रदीप समान आन्वीक्षिकी विद्या का प्रचार किया । ठीक ही है "भूखे भजन न होय गोपाला, ले लो