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नीति वाक्यामृतम्
प्रकृति पुरुषज्ञो हि राजा सत्वमवलम्बते रजः फलं चापलं च परिहरति तमोभिर्नाभिभूयते 1162 1
अन्वयार्थ :- (प्रकृति) शरीर इन्द्रियाद ( पुरुषः) आत्मा (ज्ञः) ज्ञाता (हि) निश्चय से (राजा) राजा (सत्वम्) सत्व को (अवलम्बते) अवलम्बन लेता है ( रजः) रजोगुण के ( फलम् फलको (च) और (चापलम्) चञ्चलता को (परिहरति ) दूर करता है (तमोभिः ) तमोगुण के द्वारा (न) नहीं (अभिभूयते ) तिरस्कृत नहीं होता ।
विशेषार्थ :- जो राजा शरीर इन्द्रियों आत्मा के भेद विज्ञान को आन्वीक्षिकी आध्यात्म्य विद्या के द्वारा प्राप्त कर लेता है वह सत्वगुणधारी बन जाता है । रजोगुण से जन्य चपलता और तमोगुण जन्य उच्छृंखलता उसे अभिभूत नहीं कर सकती। अर्थात् वह अज्ञानादि भावों से पराजित नहीं हो सकता । अन्याय और अत्याचार उस पर आक्रमण नहीं कर सकते ।
दर्शनशास्त्र का अध्ययन मनुष्य के मिध्यान्धकार- अज्ञानतम को नष्ट कर देता है । सम्यग्दृष्टि का उद्घाटन करनाल में ला देता है। काम क्रोधादि राजसिक भावों से होने वाली दानवता उससे दूर रहती है । सात्विक प्रकृति का उद्घाटन रहने से शुभ कर्मों में प्रवृत्त होता है । संसार प्रजा की सर्वोत्तम सेवा करने के लिए प्रेरित करता है । स्वयं आत्म-कल्याण के मार्ग पर आरूढ रहता है । उसे यथार्थ मानवता प्राप्त होती है ।
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राज्यसत्ता भी एक धरोहर है जिसका रक्षण, संवर्द्धन करना राजसत्ताधारियों का परम कर्तव्य है । यह कार्य सद्गुणों द्वारा ही संभव हो सकता है । इस विद्या का ज्ञाता ही समदर्शी होकर पुत्रवत् प्रजा की रक्षा करने में समर्थ हो सकता है । शिष्टों का रक्षण और दुष्टों का दमन करने की कला यह विद्या ही है । अतः श्रेष्ठपुरुषों को इसका यथासंभव अवश्य ही अध्ययन, मनन व चिन्तन कर कार्यरूप प्रवर्तन करना चाहिए 1162 1
अब उक्त चारों विद्याओं का प्रयोजन कहते हैं
आन्वीक्षिक्यध्यात्मविषये, त्रयी- वेदयज्ञादिषु वार्ता कृषिकर्मादिका, दण्डनीतिः शिष्टपालन दुष्ट निग्रहः 1163 11
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अन्वयार्थ (अध्यात्मविषये) आत्मतत्व व दर्शन शास्त्र सम्बन्धी (आन्वीक्षिकी) आन्वीक्षिकी विद्या, (वेद यज्ञादिषु ) ईश्वर भक्ति, पूजन, हवन आदि विषय में (त्रयी) त्रयोविद्या ( कृषिकर्मादिका) असि, मसि, खेती आदि की कला में (वार्ता) वार्ता विद्या ( शिष्टपालन - दुष्टनिग्रहः) सदाचार पालन दुराचार निग्रह में ( दण्डनीति: ) दण्डनीतिविद्या (कार्यकारी होती हैं) राजधर्म निरूपण करती है । 1631
चारों विद्याएँ राजधर्म प्रतिपालन की प्रमुख सहायिकाएँ हैं ।
विशेषार्थ :- आध्यात्मिक जीवन की आधारशिला आन्वीक्षिकी विद्या है। त्रयी जिन भक्ति, पूजन, हवन, अहिंसामयी क्रियाकाण्ड सिखलाती है। त्रयीविद्या का अध्ययन करने से भगवद्भक्ति का जीवन में संचार होता है। वार्ता विद्या षट्कर्मों का ज्ञान कराती है अर्थात् जीवनोपयोगी असि मषी, कृषि आदि का प्रयोग सिखाती है । और दण्डनीति तराजू की दंडी के समान शिष्ट-दुष्टों का वेश दिखाती हैं । अर्थात् योग्य अनुग्रह और निग्रह सिखलाती है । गुरु विद्वान कहता है :
आन्वीक्षिक्यात्मविज्ञानं धर्माधर्मो त्रयीस्थितौ अर्थानर्थी तु वार्तायां दण्डनीत्यां नयानयौ ।।1 ॥
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