________________
नीति वाक्यामृतम्
अन्वयार्थ :- (छायोपजल तरुणाम्) जल के समीप रहने वाले वृक्षों की छाया (काचित्) कोई (अन्यैव) अन्य ही प्रकार (खलु) निश्चय से (भवति) हो जाती है ।
जल के समीप रहने वाले वृक्षों की छाया अपूर्व-विलक्षण हो जाती है, उसी प्रकार विद्वानों के सान्निध्य में मूर्ख भी छवियुक्त विद्वान हो जाता है ।
विशेषार्थ :- मनुष्यों के अन्दर छिपा हुआ भी अनादिकालीन अन्धकार सत्संगति रूपी प्रदीप समूह से विखण्डित हो जाता है । कहा भी है कि :कल्पद्रुमः
कल्पितमेव सा कामधुक् कामितमेव दोग्धि । चिन्तामणिश्चिंतितमेव
दत्ते, सतां हि सङ्गः सकलं प्रसूते ॥11॥
श्लो.सं.पृ.244. अर्थ :- कल्पवृक्ष संकल्पितवस्तु को ही देता है, कामधेनू इच्छित वस्तु को ही प्रदान करती है और चिन्तामणि रत्न चिंतित पदार्थ को देता है, परन्तु सज्जन-विद्वानों की समति सम्पूर्ण वस्तुओं की दाता है, आत्म साता की विधाता है ।
सत्सङगति बुद्धि की जड़ता का हरण करती है, वचन में सत्यता लाती है, सत्य का सिंचन करती है, चित्त प्रसन्न करती है, और दिशाओं में कीर्ति का प्रसार करती है । यों कहें कि "सत्संगति पुरुषों को क्या नहीं करती? अर्थात् सब कुछ करती है"। वल्लभदेव विद्वान ने भी कहा है कि:..
अन्यापि जायते शोभा भूपस्यापि जडात्मनः
साधुसङ्गाद्धि वृक्षस्य सलिलादूर वर्तिनः ॥1॥ अर्थ :- जो राजा मूर्ख होने पर भी शिष्टपुरुषों-सत्पुरुषों या श्रेष्ठी मंत्रिमण्डलादि परिकर के मध्य रहता है । उनका सहवास करता है-सङ्गति करता है, उसकी शोभा-कान्ति अपूर्व हो जाती है यथा जल-जलाशय के समीप रहने वाले वृक्षों की छवि हरी-भरी कान्ति युक्त हो जाती है ।
__ अभिप्राय यह है कि प्रत्येक पुरुष को अपनी सङ्गति श्रेष्ठ, उत्तम विद्वानों के साथ करने का प्रयत्न करना चाहिए । अब राजगुरुओं के सद्गुण बताते हैं :
वंशवृत्तविद्याभिजनविशुद्धा हि राज्ञामुपाध्यायाः ।।68 ।।
135