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________________ नीति वाक्यामृतम्। समझा जाता है । जो शासक प्रीति के साथ दान दे सकता है और प्रेम के साथ शासन करता है उसका यश लोकल व्यापी हो जाता है । अतएव राजा को निष्पक्ष न्याय प्रिय होना चाहिए । जिसका शासन प्रेममय, तथा उचित प्रियदान । उस नृप की शुभ कीर्तिका, भू भर में सम्मान । राजा को प्रियभाषी, सत्यभाषी एवं न्यायप्रिय होना चाहिए । राजा को दुराग्रही या हठाग्रही कदाऽपि नहीं होना चाहिए। बुद्धिमान राजा का लक्षण निर्देश : यो विद्याविनीतमतिः स बुद्धिमान् 182॥ अन्वयार्थ :- (य:) जो (विद्याविनीत) विनम्रबुद्धि (मतिः) चिन्तन शक्ति युक्त है (सः) वह राजा (बुद्धिमान्) विशारद-विचारशील (कथ्यते) कहा जाता है । जिसने नीति शास्त्रों के अध्ययन से राजसंचालन विज्ञान कला, व विनम्रता अर्जित की है बुद्धिवन्त कहा जाता है । विशेषार्थ :- भूपाल को राज्यनीति का ज्ञाता होना अनिवार्य है । जो जिस कार्य का संचालक होना चाहता है प्रथम उसे उसी कला का परिज्ञान करना अनिवार्य है । राजा बनना है तो अस्त्र-शस्त्र-संचालन कला में नैपुण्य । अभ्यस्त रहना होगा । साम, दाम.भेद, दण्ड नीतियों का परिज्ञान करना होगा और देश, कालापेक्षा उसका प्रयोग भी अवगत करना होगा । तभी वह राज्य संचालन में सफल हो सकेगा । विद्वान गुरु कहते हैं - शास्त्रानुगा भवेद्बुद्धिर्यस्य राज्ञः स बुद्धिमान् । शास्त्र बुद्धया विहीनस्तु शौर्य युक्तो विनश्यति ॥1॥ अर्थ :- जिसकी बुद्धि नीतिशास्त्रों के अध्ययन से विशुद्ध है, वह बुद्धिमान है और वह सफल राज्य संचालक होता है । परन्तु जो शास्त्र विद्या व बुद्धिविहीन है वह वीर भट होने पर भी सराज्य नष्ट हो जाता है । उसका यश और नाम विलीन हो जाते हैं। अतएव राजा को यथार्थ राज्य स्थापित करने और अपना अस्तित्व व नाम, यश अमर बनाने के लिए न्यायशासन का अध्येता अवश्य ही होना चाहिए । शास्त्रज्ञान शून्य शूर की दशा : सिंहस्येव केवलं पौरुषालम्बिनो न चिरं कुशलम् ।।33॥ अन्वयार्थ :- (सिंहस्य) शेर के (केवलं) मात्र (पौरुषावलम्बिन:) पुरुषार्थ का सहारा (एव) ही है अतः (चिरम्) बहुत समय (कुशलम्) कुशलता (न) नहीं (भवति) होती है । वनवासी सिंह वनराज कहलाता है । किस कारण से ? मात्र पुरुषार्थ अपने विक्रम से परन्तु उसे शास्त्रज्ञान- म Mबुद्धि-विवेक नहीं है । अतः निर्भय हो चिरकाल तक राज्य नहीं कर सकता । कभी भी किसी के द्वारा मारा जाता 116
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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