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________________ नीति वाक्यामृतम् कमविक ममूलस्य, राजस्य तु यथा तरोः । समूलस्य भवेद्वद्धिस्ताभ्यां हीनस्य संक्षयः ॥11॥ अर्थ :- जिस प्रकार मूल सहित होने से वृक्ष की वृद्धि-समृद्धि होती है उसी प्रकार क्रम-सदाचार-कुलाचार और विक्रम गुणों से राज्य की वृद्धि होती है । अन्यथा इन दोनों के अभाव में राज्य नष्ट हो जाता है । कहा है प्रजाभ्यो योऽस्ति दुर्दर्शो न्यायेनापि विचारकः । अरिणा स च हीनोऽपि स्वपदाद् अश्यते नृपः ॥8॥ कुरल प.छे.55 अर्थ :- ओ राजा प्रजा वत्सल नहीं है, अर्थात् प्रजा जिसे अपने कष्ट निवेदन न कर सके, जो ध्यानपूर्वक न्याय-विचार नहीं करता यह राजा शत्रओं के नहीं होने पर भी अपने पद से च्युत हो जायेगा । अतएव राजा का कर्तव्य है कि चाहे उसे कुलपरम्परा से राज्य प्राप्त हुआ हो या स्वयं के पुरुषार्थ से उसकी सुरक्षा, समृद्धि और स्थायित्व के लिए सदाचार से युक्त लक्ष्मी और सैनिक बल को न्यायपूर्वक संचित करता हुआ प्रजावत्सल बन राज्य करे । तभी वह स्थायी हो सकेगा ।27 ॥ राज्यवृद्धि का उपाय : आचार सम्पत्तिः क्रमसम्पत्तिं करोति ।।28।। अन्वयार्थ :- (क्रमसम्पत्तिम्) कुल परम्परा से प्राप्त राज्य को (आचार-सम्पत्तिः) सदाचार रूप लक्ष्मी (करोति) बनाये रखती है। अर्थ :- कुलक्रमागत या स्वपुरुषार्थ से अर्जित राज्य सम्पदा सदाचार से सुरक्षित रहकर वृद्धिंगत होती है। विशेषार्थ :- कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं : स्निग्ध दृष्टयैव यो राजा स्वराज्यं शास्ति सर्वदा । तं भूपतिं कदापीह राजश्रीन व मुञ्चति ।।4।। अर्थ :- प्रेमपूर्ण व्यवहार से जो राजा अपनी प्रजा का पुत्रवत् पालन करता है - शासन करता है, उस राजा को राजश्री कभी भी नहीं त्यागती । अर्थात् प्रजा की सुख सुविधा बनाये रखना राजा का कर्तव्य है जो कर्तव्यनिष्ठ होता है वह सर्वप्रिय हो जाता है । "प्रेम का शासन स्थायी होता है तलवार का क्षणिक ।" यह नीति है । अतः न्याग सदाचार और न्याय प्रियता राज्य शासन की रीढ़ हैं जो राजा इनका ध्यान रखता है वह समृद्ध होता जाता विद्वान 'शुक्र' भी कहता है : लौकिकं व्यवहारं यः कुरुते नयवृद्धितः । तवृद्धया वृद्धिमायाति राज्यं तत्र क्रमागतम् ।।1।। - 112
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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