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________________ नीति वाक्यामृतम् । अर्थ :- जो राजा अपने नैतिक ज्ञान की वृद्धि करके लोक व्यवहार में निपुण होता है तो उसके वंश परम्परा से आगत राज्य की श्री वृद्धि होती है । कहा है : सम्यग्विचार्य निष्पक्षो भूत्वा चापि महीपते । नीतिज्ञ सम्मतः शुद्धः कर्तव्यो न्यायविस्तारः ॥ कुरल 2.55 अर्थ :- राज्यशासन कुशल राजा को पूर्वापर विचार कर निष्पक्ष दृष्टि से प्रजा के सुख दुःख की व्यवस्था करनी चाहिए । न्याय नीतिपूर्वक अपने राज्य की समृद्धि के लिए नीतिवेत्ताओं से परामर्श विचार विमर्श भी करते रहना चाहिए । अर्थात् नीतिनिपुण मन्त्रिमण्डल रहने से राज्य व्यवस्था विस्तृत और स्थायी होती है ।28 ॥ पराक्रम को शोभित करने वाला गुण : अनुत्सेकः खलु विक्रमस्यालङ्कार : 129॥ अन्वयार्थ :- (विक्रमस्य) पराक्रम का (अलङ्कारः) आभूषण (खलु) निश्चय से (अनुत्सेकः) विनम्रता व निरभिमान (अस्ति) है । पराक्रमी के साथ यदि राजा विनयशील और अहंकार शून्य है तो वह राजलक्ष्मी से अलंकृत हुआ शोभायमान होता है । नृपत्ति का आभूषण विनय और निरभिमान है । 'गुरु' नीतिकार कहता है : भूषणैरपि संत्यक्तः स विरेजे विगर्वकः । सगर्वो भूषणाढ्योऽपि लोकेऽस्मिन् हास्यातां व्रजेत् ।।1।। योऽमात्यान् मन्यते गर्वान्न गुरुन् न च बांधवान् शूरोऽहमिति विज्ञेयो मियते रावणो यथा ।12।। अर्थ :- मानव सुर्वणादि के आभूषणों से रहित होने पर भी यदि विनयशील और सदाचारी है तो कामदेव को भी अपने सौन्दर्य से जीत लेता है । घमण्डी और पराक्रमविहीन राजा मणिमाणिक्य खचित स्वर्णालड्कारों से युक्त होने पर भी हंसी का पात्र होता है । उसकी ऐंठ उसे विकृत बना देती है । जो राजा "मैं बहुत शूरवीर हैं" इस प्रकार मानकर अहंकारवश हुआ मन्त्री, पुरोहित, गुरु और बांधवों का सम्मान नहीं करता, किसी के परामर्श को नहीं मानता वह रावण की भाँति अपनी कीर्ति के साथ नष्ट हो जाता है । अतः नीतिनिपुण पुरुषों को कभी भी घमण्ड नहीं करना चाहिए । अभिमान पाप का मूल है और पाप नाश की जड़ है 129 ॥ राज्य की क्षति का कारण बताते हैं : क्रमविक्रमयोरन्यतरपरिग्रहेण राज्यस्य दुष्करः परिणामः ।।30॥ मु.मू.पुस्तक में तर के स्थान में तम् प्रत्यय है अर्थ भेद कुछ नहीं है । अन्वयार्थ :- (क्रमः) कुल क्रम से प्राप्त (विक्रमः) पुरुषार्थ प्राप्त (अन्यतर) दोनों में से किसी प्रकार उपलब्ध 113
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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