SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 7 -नीति वाक्यामृतम् । ताजा बनाये रखने को वह तत्पर रहता है । उनकी स्मृति में त्याग, तप दानादि प्रदान करते हैं । पुण्य और यश की वृद्धि के कार्य उनके नाम से सम्बन्ध कर अपने और अपने कुल के नाम को समुज्वल करता है । अत: वह पुत्रयुक्त पुरुष अपने पितृ ऋण से उत्तीर्ण और श्रेष्ठ माना जाता है । इसके फल स्वरूप उसकी यशोपताका गगनागण में फहराती है । चन्द्रिकावन्निर्मल कीर्ति कौमदी का चारों ओर विस्तार फैलता है । परन्तु पुत्रविहीन पुरुष अनेकों सत्कार्य करने पर भी अपने दादा के ऋण से उऋण नहीं हो सकता । ऋणी ही बना रहता है। कृत्तज्ञ सद्गृहस्थ, पुरुष को पैतृक ऋण से मुक्त होने एवं वंश और धर्म की मर्यादा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए पुत्र युक्त होना चाहिए ।।13 ॥ नीतिकार कहते हैं : अपुत्रस्थगतिर्नास्ति स्वर्ग नैव च नैव च । तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा पश्चाद् भवति तापसी ।। अन्य मतियों का सिद्धान्त है कि वंशवृद्धि के लिए प्रथम पत्रोत्पादन करे तदन्तर संन्यासी-तापसी-तपस्वी व साधु बने। परन्तु स्याद्वादवादियों के लिए कुछ भी असंभव नहीं । सभी सांसारिक उद्देश्य वैराग्य के समक्ष गौण हो जाते हैं । अखण्ड बाल ब्रह्मचारी रहकर भी आत्मा की सिद्धि कर सकता है । आत्मकल्याण सर्वोपरि है । शास्त्राभ्यासविहीन पुरुष की हानि : अनध्ययनो ब्रह्मणः 14॥ "अनध्ययनो ब्रह्मर्षीणाम्" यह मु.मू.पु. में पाठ है जिसका अर्थ है कि जो मनुष्य शास्त्रों का अध्ययन नहीं करता वह गणधरादि ऋषियों का ऋणी होता है । अन्वयार्थ :- (अनध्ययन:) शास्त्रों का अध्ययन नहीं करने वाला (ब्रह्मणः) आदि ब्रह्मा-ऋषभदेव का (ऋणीभवति) कर्जदार होता है । शास्त्रों का अध्ययन नहीं करने वाला ऋषभदेव का ऋणी होता है । विशेषार्थ :- ऋषिपुत्रक विद्वान कहता है - ब्रह्मचारी न वेदं यः पठते मौढ्यमास्थितः । स्वायंभुवमणं तस्य वृद्धिं याति कुसीदकम् ॥ अर्थ :- जो ब्रह्मचारी अज्ञान से वेदों का अध्ययन नहीं करता उसका ईश्वरऋण ब्याजयुक्त होता हुआ वृद्धिगत होता रहता है । ऋषभादि चतुर्विंशति-24 तीर्थंकरों की दिव्य ध्वनि के आधार से ही द्वादशाङ्ग-अहिंसामय धर्म का निरूपण करने वाले शास्त्रों की रचना हुयी है । अतएव उन्हें मनुष्यजाति को सम्यग्ज्ञान निधि समर्पण करने का श्रेय प्राप्त है । इसलिए जो उनके शास्त्रों को पढता है वह उनके ऋण से मुक्त हो जाता है और जो स्वाध्याय नहीं करताउनकी वाणी को नहीं पढता वह ऋणी रह जाता है । यद्यपि उपर्युक्त कथन लौकिक व्यवहार रूप है तथाऽपि श्रेय की प्राप्ति, ऋषभादितीर्थंकरों के प्रति कृतज्ञताज्ञापन करने और अज्ञान निवृत्ति के लिए प्रत्येक व्यक्ति को निर्दोष-अहिंसा धर्म निरूपण करने वाले शास्त्रों का अध्ययन 102
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy