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1 नाति वाक्यामृतम् - - करना चाहिये । आप्त द्वारा कथित आगम हो पठनीय है ।14॥ ईश्वर भक्ति न करने वाले की हानि :
अयजनो देवानाम् ॥15॥"अयजमानो देवानाम्" मु.पू.पु. अन्वयार्थ :- (देवानाम्) इष्ट देवों की (अयजमानः) पूजा नहीं करने वाला (ऋणी) कर्जदार (अस्ति)
जो मनुष्य ऋषभादि चतुर्विशति अर्हतों की भक्ति-पूजा नहीं करता वह उनका ऋणी है । आचार्य श्री विद्यानन्दि जी कहते हैं :
अभिमतफलसिद्धरम्युपायः सुबोधः । प्रभवति स च शास्त्रातस्य धोत्पत्तिराप्तात् ।। इति प्रभवति स पूज्यस्त्वत्प्रसादप्रबुद्धयै नहि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ।।
श्लो. वा. पृ.3. अर्थ :- आत्यन्तिक दुःखों की निवृत्ति-मोक्ष की प्राप्ति, सम्यग्ज्ञान से होती है, वह सम्यग्ज्ञान भी निर्दोष द्वादशाङ्ग जिनवाणी के अध्ययन से प्राप्त होता है। द्वादशाङ्गवाणी के मल दाता ऋषभादि चतविशति तीर्थकर परमदेव-आप्त हैं वे पूज्य हैं क्योंकि सज्जन लोग किये उपकारों को भूलते नहीं हैं । उन्होंने मनुष्यों के हृदयों में सद्वोध और सदाचार के दीपक जलाकर उनका अनन्त और अपरिमित उपकार किया है, उनके प्रति भक्ति, पूजा, श्रद्धा, निष्ठा समर्पण होना अनिवार्य है।
इसलिए जो व्यक्ति मूर्खता या मद के वश में होकर उनकी भक्ति-पूजा नहीं करता वह तीर्थङ्करों का ऋणी
सारार
सारांश यह है कि प्रत्येक मनुष्य को देवऋण से मुक्ति-छुटकारा पाने एवं श्रेय की प्राप्ति के लिए जिनवर भक्ति करना चाहिए । जिन भक्ति और जिनागम की श्रद्धा अकाट्य और दृढ़ होनी चाहिए । लोक सेवा न करने वाले की हानि :
"अहन्सकरो मनुष्याणाम् ॥16॥" अन्वयार्थ :- (अहन्तकरो) शोक पैदा नहीं करने वाला (मनुष्याणाम्) जनता का (ऋणी अस्ति) कर्जदार
जिसकी मृत्यु होने पर अन्य कोई शोक न करे वह मनुष्यजाति का ऋणी-कर्जदार है ।
विशेषार्थ :- दूसरों को शोक उत्पन्न न करने वाला मनुष्यों का ऋणी है । अर्थात् जिसकी मृत्यु के बाद जनता न किंचिन्मात्र भी शोभ-शोक न हो वह पथ्वी पर भार स्वरूप होने से मनुष्य जाति का कर्जदार है । अथवा H इसका अन्य अर्थ यह भी हो सकता है कि "जो मनुष्य दूसरों को दुःख-कष्ट में देखकर "हन्त" दुःख है ऐसा
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