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________________ करना -नीति वाक्यामृतम् । स जातो येन जातेन याति वंश समुन्नतिं । परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ।। अर्थ :- जन्म उसी का सार्थक है जो उत्पन्न होकर अपने वंश को समुन्नत करता है । अन्यथा परिवर्तनशील इस लोक में कौन नहीं मरता और कौन उत्पन्न नहीं होते ? अर्थात् अनेकों मरते-जीते हैं । सारांश यह है कि पुत्र को माता-पिता और गुरुजनों की यथायोग्य सेवा, भक्ति, आज्ञापालन, सदाचार सेवन चाहिए । वंश की रक्षा करने में तत्पर रहना चाहिए 111 ।। कृनुपद ब्रह्मचारी का लक्षण: कृतोद्वाहःऋतुप्रदाता कृतुपदः ।।12॥ अन्वयार्थ :- (कृतः) किया है (उद्वाहः) विवाह जिसने एवं (ऋतुप्रदाता) मात्र ऋतुकाल-चतुर्थदिवस स्नानवाद ही भोग करने वाला (कृतुपदः) कृतुपद ब्रह्मचारी (अस्ति) है । विशेषार्थ :- जो जितेन्द्रिय, विवाहित होकर भी मात्र वंशवृद्धर्य ऋतु काल-चतुर्थस्नान के बाद रात्रि में गर्भाधान निमित्त स्त्री का उपभोग करता है उसे "कृतुपद" ब्रह्मचारी कहते हैं । विद्वान वर्ग का भी कथन है : सन्तानाय न कामाय यः स्त्रियं कामयेदतौ । क तुपदः स सर्वेषामुत्तमोत्तम सर्ववित् ॥ अर्थ :- जो व्यक्ति कामवासना की तृप्ति को त्यागकर केवल सन्तानप्राप्ति के लिए ऋतुकाल शुद्धि के अनन्तर ही पत्नी का संभोग करता है, वह उत्तमोत्तम और सर्व बातों को जानने वाला "कृतुपद" ब्रह्मचारी है । यह सन्तोष धारण कर गृहस्थावस्था में रहकर भी अपने मन और इन्द्रियों को सन्तुलित रखता है । इसीलिए ब्रह्मचारी कहा जाता पुत्र शून्य ब्रह्मचारी का लक्षण : अपुत्रः ब्रह्मचारी पितृणामृणभाजनम् ।। अन्वयार्थ :- (अपुत्रः) पुत्रविहीन (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचर्यव्रतधारी, (पितृणाम्) पितरों का (ऋणभाजनम्) ऋणीकर्जदार पात्र (कथ्यते) कहा जाता है । नैष्ठिक ब्रह्मचारी के अतिरिक्त शेष चार प्रकार के ब्रह्मचारी पुत्रविहीन हों तो वे अपने पिताओं के ऋणी समझे जाते हैं । विशेषार्थ :- प्रत्येक मानव अपने माता-पिता के अनन्त उपकारों से उपकृत होता है । अतएव कर्तव्यदृष्टि से वह माता-पिता की यावज्जीवन सेवा, सुश्रुषा, गुरुओं को भक्तिपूर्वक आहार देना आदि कार्य करता है । तो भी मातृ-पितृ के उपकारों का बदला नहीं चुका सकता है । अतः वह उनके ऋण-कर्ज से मुक्त नहीं होते । इसलिए उसके उस अत्यन्त आवश्यकीय सत्कर्त्तव्य की उत्तराधिकारी सत्पुत्र पूर्ति करता है । उनकी पावन स्मृति को तरो 101
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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