________________
नीति वाक्यामृतम् ।
वानप्रस्थाश्रम से तात्पर्य है 'वनवासी' । वन में निवास करना मात्र ही वानप्रस्थ नहीं है अपितु नीतिविरुद्ध अश्लील प्रवृत्तियों-हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह का त्याग कर उत्तम सम्यक् चारित्र धारण कर, वीतरागता पूर्वक वन में निवास करता है । तात्पर्य यह है कि जो पाँच महाव्रत धारण कर, संयमपूर्वक, निर्ममत्व होकर एकाकी वनप्रदेशों में निवास करता है वह वानप्रस्थ आश्रम कहलाता है । इसके विपरीत जो स्त्री आदि कुटुम्ब को लेकर सपरिवार वन में निवास करता है वह वानप्रस्थ नहीं है ।३॥
जिस महात्मा ने सम्यग्ज्ञान द्वारा विवेकरूपी नेत्रोन्मीलन कर लिया है, सदसद्विचार से मानसिक विशुद्धि, चारित्रपालन द्वारा दीप्ति, और नियमों के पालन द्वारा जितेन्द्रियता प्राप्त की है उसे तपस्वी कहते हैं । किन मात्र वाह वेषधारी को तपस्वी नहीं कहते ।
उपर्युक्त विवेचन का सार हम इस प्रकार समझें कि श्रावक की 11 प्रतिमाएँ होती हैं । इनमें से चारित्रपालन की श्रेणियों के अनुसार प्रथम से छठवीं तक के चारित्र को धारण करने वाले "गृहस्थाश्रमी", सातवींसे नवमीतक के चारित्र पालक "ब्रह्मचारी" तथा दशवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाधारी-चारित्री "वानप्रस्थ" कहे गये हैं । इनके ऊपर परम वीतराग दिगम्बर मुद्राधारी मुनिवर "यत्याश्रमी" कहलाते हैं । चारों ही आश्रमों की सिद्धिसम्यग्दर्शनपूर्वक ही संभव है । अतः धर्मपूर्वक जीवन के अनुष्ठान ही कार्यकारी होते हैं ।।7। अब उपकुर्वाणक ब्रह्मचारी का लक्षण करते हैं :
स उपकुर्वाणको ब्रह्मचारी यो वेदमधीत्य स्तायात् ।।४॥ अन्वयार्थ :- (यः) जो (वेदम्) अहिंसाधर्मनिरुपक शास्त्र को (अधीत्य) पढ़कर (स्नायात्) विवाह संस्कार करता है (स:) वह (उपकुर्वाणको) उपकुर्वाणक. (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (अस्ति) है ।
जो अहिंसा धर्म के प्रतिपादक वेद-सच्चे शास्त्रों का अध्ययन कर विवाह संस्कार करता है उसे उपकुर्वाणक ब्रह्मचारी कहते है । यहां स्नान शब्द आया है उसका अर्थ कहते हैं ।
स्नानं विवाहदीक्षाभिषेकः ॥9॥ अन्वयार्थ :- (विवाहदीक्षा). विवाह संस्कार (अभिषेकः) स्नान (स्नानम्) स्नान कहलाता है । विवाह संस्कार रूप दीक्षा से अभिषिक्त होना स्नान है ।
"स्नान विवाह दीक्षा विशेषः" इस प्रकार मु, मू. पुस्तक में पाठ है परन्तु अर्थ भेद नहीं हैं। नैष्ठिक ब्रह्मचारी का लक्षण :
स नैष्ठिको ब्रह्मचारी यस्य प्राणान्तिक मदारकर्म 10॥ अन्वयार्थ :- (यस्य) जिसके (प्रणान्तिकम्) जीवन पर्यन्त (अदारकर्म) स्त्री सेवन त्याग है (स:) वह (नैष्ठिकः) नैष्ठिक (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (कथ्यते) कहा जाता है ।
जो यावज्जीवन ब्रह्मचर्यव्रत धारण करता है - पठन-पाठन करता है उसे नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते हैं। विशेषार्थ :- भारद्वाज विद्वान ने नैष्ठिक श्रावक का लक्षण कहा है -