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अब आश्रम के भेदों का वर्णन करते हैं :
नीति वाक्यामृतम्
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ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो यतिरित्याश्रमाः 117
अन्वयार्थ (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचर्य (गृही) गृहस्थ ( वानप्रस्थः) वान प्रस्थ ( यतिः) सन्यासी (इति) इस प्रकार ( आश्रमाः) आश्रम (सन्ति) हैं ।
ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम ये चार आश्रम हैं ।
विशेषार्थ :- उपासकाध्ययन नामक सातवें अङ्ग में इन चारों ही आश्रमों का उल्लेख मिलता है । अन्य जैनाचार्यों ने लिखा है
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थश्च भिक्षुकः । इत्याश्रमास्तु जैनानां सप्तमाङ्गाद्विनिसृताः
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सागार धर्मामृते
यशस्तिलक में इन आश्रमों के निम्न प्रकार लक्षण किये गये हैं :ज्ञानं ब्रह्म दया ब्रह्म काम विनिग्रहः 1 वसन्नात्मा ब्रह्मचारी भवेन्नरः 11
सम्यगत्र
अर्थ:- जिस पु
यज्ञनादयामाप एवं कामवासना का निग्रह किया है और सम्यक् प्रकार
आत्मा में निवास करता वह ब्रह्मचारी कहलाता है । अर्थात् सम्यक् विवेक पूर्वक जो कामेन्द्रियों को वश कर स्त्री सेवन का त्याग करता है, भले प्रकार अपने आत्मस्वरूप में रमण करता है वह यथार्थ ब्रह्मचारी कहलाने योग्य है ।। 1 ।।
जो गृहस्थाश्रम चलाता है वह गृहस्थ निम्न प्रकार का कहा है।
क्षान्ति योषिति यो सक्तः सम्यग्ज्ञानातिथि प्रियः । स गृहस्थो भवेन्नूनं मनो दैवत साधकः 112 11
अर्थ :- जो पुरुष क्षमारूपी स्त्री में आसक्त, सम्यग्ज्ञान और अतिथियों अर्थात् दान देने में व्रत्तियों सेवारत, और मनरूपी देवता का साधक- वश करने वाला - जितेन्द्रिय है वह निश्चय से गृहस्थ है । कुरल अनुरक्त-त्यागीकाव्य में भी कुन्दकुन्द देव ने कहा है
धर्मराज्य के साथ में, जिसमें प्रेम प्रवाह I तोष सुधा उस गेह में, पूर्ण फलें सब चाह ॥15॥
परिच्छेद 5
जिस घर में स्नेह और प्रेम का निवास है, जिसमें धर्म का साम्राज्य है, वह सम्पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है उसके सकल उद्देश्य सफल होते हैं ।।
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