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________________ .......-- -.--- - - ----- न्यग्वृत्ति नियतान् शूद्रान् पद्भ्यामेवासृजत् सुधीः । वर्णोत्तमेषु शुश्रूषा तवृत्ति कथा स्मृता 118॥ मुखतोऽध्यापयन् शास्त्रं भरतः स्त्रक्ष्यति द्विजान् । अधीत्यध्यापने दानं प्रतीक्ष्येज्येति तत्किया ॥१॥ ब्राह्मणाः व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनान्यायात् शूद्रा न्याग्वृत्तिसंश्रयात् 110 आदि पुराणे प.16. अर्थ :- कारू शूद्र भी दो प्रकार के बताये - 1. स्पर्श करने योग्य और अस्पृश्य (स्पर्श करने को अयोग्य) जो प्रजा से अलग निवास करते थे वे अस्पृश्य और जो मध्य में रहते थे नाई वगैरह स्पृश्य कहलाते थे ।।4।। उक्त तीनों वर्ण के लोग अपना-अपना कार्य-जीविका करते थे । वैश्य का कार्य शूद्र या क्षत्रिय नहीं करता था और क्षत्रिय व वैश्य का कार्य कोई अन्य नहीं करता था । विवाह, जाति, सम्बन्ध और व्यवहार ये सब भगवान की आज्ञानुसार ही होते थे । जाति संकरता से सब दूर रहते थे । अर्थात् विवाहादि स्व जाति कन्या के साथ ही होता था 115॥ उस समय ऋषभदेव ने अपनी भुजाओं से शस्त्र धारण कर क्षत्रिय धर्म का शिक्षण दिया अर्थात् क्षत्रियों को जन्म दिया । क्योंकि जो स्वयं हाथ में शस्त्र धारण कर स्व और पर जीवों की रक्षा करे वही क्षत्रिय कहा जाता है 116 स्वयं प्रभु ने यात्रा कर, परदेश जाने का उपदेश दिया । स्वयं पैदल चलकर प्रजा को व्यापारादि में लगाकर वैश्यों की सृष्टि की । जल, थल मार्ग से गमनागमन कर ही व्यापार करना वैश्यों की मुख्य आजीविका थी । उस समय श्री आदि प्रभु ने मर्यादापूर्वक यह कला सिखायी थी .17 ।। सदैव नीच कार्यों में तत्पर रहने वाले शूद्रों की रचना प्रभु ने अपने ही पैरों से की । क्योंकि उत्तम वर्ण वालों के पैर दबाना, सर्वप्रकार उनकी सेवाशुश्रूषा करना और उनकी आज्ञा का पालन करना आदि शूद्रों को आजीविका के साधन निर्धारित किये थे ।।8।। इस प्रकार तीनों वर्गों का निर्धारण पहले ही भगवान आदिनाथ द्वारा हो चुका था । तदनन्तर ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती ने स्वयं अपने मुख से शास्त्रों का अध्ययन कराते हुए ब्राह्मणों की रचना की । उनके कार्य पठनपाठन, यजन-याजन, दान देना और लेना निर्धारित किया । यही उनकी जीवन चर्या जीविका की साधना थी । उपर्युक्त वर्णों के विषय में आचार्य श्री ने लिखा है कि व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रधारण से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक द्रव्य कमाने से वैश्य और नीचवृत्ति का आश्रय लेने से शूद्र कहलाते हैं । यहाँ भी श्री सोमदेव स्वामी ने इन्हीं चारों वर्गों का संकेत किया है ।।6।।
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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