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________________ नीति वाक्यामृतम् कर म लेता न्याय को, यथा शास्त्र जो भूप । होती उसके राज्य में वर्षा धान्य अनूप ॥15 ॥ कुरल. अतएक जो भूपति किनानुसार राजदण्ड धारण करता है उसका देश समयानुकूल वर्षा और शस्य श्री का घर बन जाता है । अर्थात् सतत् उसके राज्य में सुख-शान्ति सुभिक्ष बना रहता है । पुनः राज्य का लक्षण करते हैं : वर्णाश्रमवती धान्य हिरण्यपशुकुप्यवृष्टिप्रदानफला च पृथ्वी ॥15 ॥ (वर्णाश्रमवती धान्य- हिरण्य-पशु-कुप्य-विशिष्ट फलदा च पृथिवी ॥15 ॥ मू.पु. में यह पाठ है - अर्थ भेद कुछ भी नहीं है) अन्वयार्थ :- (वर्णा :) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र (आश्रमाः) ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं यति (वती) वाली (च) और (धान्य) अन्नादि (हिरण्य) सुवर्णादि (पशु) चौपाये (कुप्य) वस्त्र (विशिष्टा) या (वृष्टि) वर्षा ( प्रदानफला) देने वाली (पृथ्वी) भूमि (राज्यं कथ्यते) राज्य कही जाती है । जहाँ वर्णाश्रम व्यवस्था समुचित रूप से चलती है, और जहाँ जनता अन्नपान, धन सम्पन्न होती है सुशिक्षित न्यायपूर्वक प्रवृत्ति करती है वह राज्य कहा जाता है । विशेषार्थ :- जिस भूमि पर या जिस शासक के अधिकार में चारों वर्ण अपनी-अपनी योग्यतानुसार कर्त्तव्यनिष्ठ रहते हैं । सदाचार पालन करते हैं। वर्ण और चारों प्रकार के आश्रमों को व्यवस्थित रखते हैं । सभी अपने-अपने कर्त्तव्य पालन में निष्ठ होते हैं उसे राज्य कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि जहाँ को वसुधा शस्यश्यामल, खनिजपदार्थों की उत्पादक, नाना रत्नों की खानों से युक्त होती है, समय पर वर्षा होती है उसे राज्य कहा जाता है । धर्मयुक्त शासन यथार्थ राज्य है । न्यायदण्ड प्रमुख है : राजदण्ड ही धर्म का, जैसे रक्षक मुख्य । वैसे ही वह लोक में, विद्या पोषक मुख्य 113 ॥ कुरल. अर्थ :- राजदण्ड ही ब्रह्मविद्या और धर्म का मुख्य संरक्षक है । जो राजा अपनी प्रजा के साथ प्रेम का व्यवहार करता है उसको लक्ष्मी कभी नहीं छोड़ती राज्य लक्ष्मी अभिन्न अङ्ग बनी रहती है । भृगुनामक विद्वान ने राज्य का लक्षण लिखा है : वर्णाश्रम समोपेता सर्वकामान् प्रयच्छति 1 या भूमिर्भूपते राज्यं प्रोक्ता सान्या विडम्बना ।।1 ॥ अर्थ जिस राजा की पृथ्वी वर्ण और आश्रमों से युक्त एवं धान्य और सुवर्ण आदि द्वारा प्रजाजनों के मनोरथों को पूर्ण करने वाली हो उसे राज्य कहते हैं । अन्यथा जहाँ पर ये चीजें नहीं पायी जावें वह राज्य नहीं, किन्तु राज्याभासकोरी विडम्बना है । 95
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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