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नीति वाक्यामृतम्
विशेषार्थ :-- राज्य पालन के सन्धि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और द्वैधीभाव, इन 6 कर्मों का यथोचित पालन करना ही राज्य है । जिस समय राजा यह देखता है कि आक्रमण कर्त्ता बलवान है तो व्यर्थ ही प्रजा-सेना का संहार क्यों किया जाय ? अत: उसके साथ सन्धि कर लेते हैं ।
अपने से दुर्बल शत्रु से युद्ध कर परास्त करना विग्रह कहलाता है । राज शासन की वद्धि प्रसार व यश के लिए इसका प्रयोग करना उचित समझा जाता है ।
यान का अर्थ सवारी है । परन्तु यहां सत्ता स्थापन का प्रसंग है । अतः शत्रु पर चढाई करना ‘यान' कहलाता है । इसमें 'अभि' उपसर्ग लगाने से अभियान-चढाई हो जाता है ।
शत्रु की उपेक्षा करना आसन् है ।
आत्मसमर्पण करना संश्रय है । अर्थात् पराजय स्वीकार कर जयी का सहारा ले लेने के संकल्प को संश्रय कहना चाहिए।
बलवान के साथ सन्धि और कमजोर के साथ युद्ध करना द्वैधीभाव कहलाता है । इस प्रकार इन छ: कर्मों का प्रयोग करना पालन करना राज्य है । राज्य एक संस्था है जहाँ से स्थिति नाजुक होने पर महान् कार्य भी सम्पादित होना संभव है । राज्य के लिए अस्त्र-शस्त्र प्रयोग ही कारण नहीं हैं, अपितु न्याय-नीति प्रमुख है । कहा
महीपते: खरः कुन्तो विजये नास्ति कारणं । विशुद्धो न्याय एवास्ति विजये किन्तु कारणम् ॥6॥
कुरल तीखा भाला है नहीं, जय में कारण एक धर्म न्याय ही भूप के, जय में कारण एक 116 ।।
कुरल. अर्थ :- राजा की विजय का कारण भाले की नोक नहीं है, किन्तु एक मात्र न्यायपूर्वक दण्ड है जो सदैव सरल सीधा रहता है, कभी भी झुकता नहीं है । नीतिकार वर्ग विद्वान ने राज्य का लक्षण निम्न प्रकार किया है
विज्ञेयः पार्थिवो धर्म: शिष्टानां परिपालनम् ।
दण्डश्च पाप वृत्तीनां गौनोऽन्यः परिकीर्तितः 11॥ अर्थ :- काम विलास आदि को त्याग कर षाडगुण्य-सन्धि-विग्रहादिका उचित प्रयाग करना राज्य है 111
जो राजा विषयासक्त होकर कर्त्तव्य च्युत हो जाता है । न्यायपूर्वक इनका प्रयोग नहीं करता वह स्वयं अपने राज्य के साथ समाप्त हो जाता है । तथा जो नरेश न्यायानुसार प्रवृत्ति करता है उसका राज्य उसकी अमर कीर्ति के साथ प्रख्यात होता है । कहा भी है :