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नीति वाक्यामृतम्
अर्थ अरिषड्वर्ग-समुद्देशः
राजाओं के अन्तरङ्ग शत्रु-काम और क्रोध का निरूपणः
अयुक्तितः प्रणीता: काम क्रोध, लोभ, मद-मान हर्षाः क्षितीशानामन्तरङ्गोऽरिषड्वर्गः ॥
अन्वयार्थ :- (अयुक्तितः) अन्याय से (प्रणीतः) कथित (शत्रुः) शत्रु (काम-क्रोध-लोभ-मद-मान हर्षाः) कामवासना, कोप, लालच, अहंकार, बडप्पन का भाव व हर्ष (षड्वर्गा:) ये छ: भाव (क्षितीशानाम) राजा के (अन्तरङ्गः) अन्तरंग (अरि) शत्रु (सन्ति) हैं ।
काम, कोप, लालच, मद, मान और हर्ष ये यदि असीम रूप से प्रयुक्त होते हैं ता राजाओं के शत्रु रूप सिद्ध होते हैं।
विशेषार्थ :- आवश्यकता और समय के प्रतिकूल प्रयुक्त किये जाने पर गुण दोष और दोष गुण रूप परिणमित हो जात हैं । राजाओं के भी उपर्युक्त परिणाम असीम होने पर प्रबल शत्रु का काम करते हैं । राजनीतिज्ञ कामन्दक ने इसका निम्न प्रकार विवेचन किया है -
कामः क्रोधस्तथा लोभो हर्षो मानो मदस्तथा । षड्वर्ग मुत्सृज्येदेनमस्मिन् त्यक्ते सुखी नृपः ।।1।। दण्डको नृपतिः कामात् क्रोधाच्च जनमेजयः । लोभादैलस्तु राजर्षिर्वातापिर्दर्पतोऽसुरः 1॥2॥ पौलस्त्यो राक्षसो मानान्मदाद्दम्भोद्भवो नृपः । प्रयाता निधनं ह्ये ते शत्रुषड्वर्गमाश्रिताः ।।3।। शत्रु षड्वर्गमुत्सृज्य जामदग्नयो जितेन्द्रियः । अम्बरीषो महाभागो बुभुज ते चिरं महीम् ।।4।। जितेन्द्रियस्य नृपते नीतिमार्गानुसारिणः । भवन्ति ज्वलिता लक्ष्प्यः कीर्त्तयश्च नभः स्पृशः ॥5॥
नीतिसार पृ.12-13
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