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________________ न धर्म नीति वाक्यामृतम्। जातु कामान्न त्यजेज्जीवितस्यापि तीनों पुरुषाथों म अर्थ की मुख्यता बताते हैं भयान्न हे तो : अर्थ :- विवेकी मनुष्य को पूर्व में धर्म पुरुषार्थ का ही अनुष्ठान करना चाहिए । उसे विषयों की लालसा, भय, लोभ और जीव रक्षा के लालच से धर्म कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए । साथ ही आचार्य श्री का आशय यह भी है कि आर्थिक संकट में फंसने पर दरिद्री व्यक्ति पूर्व में अर्थोपार्जन करे तो अयुक्त नहीं है । क्योंकि धर्म, काम, लौकिक जीवन यात्रा, तीर्थ वन्दना, पूजा-विधानानुष्ठानादि अर्थ के आश्रित हैं, अर्थ रहने पर ये कार्य निर्विघ्न होना संभव हैं अन्यथा कठिनाई या वाधा आ सकती है । अतः आवश्यकता व समयानुसार धन सञ्चय करना उत्तम हैं । लोभात् 11 11 ( संग्रहीत ) || धर्मकामयोरर्थमूलत्वात् ॥17॥ अन्वयार्थ :- ( धर्मकामयोः) धर्म और काम का ( मूलम् ) जड (अर्थम्) अर्थ है 1 81 धर्म और काम पुरुषार्थ की जड़ मूल अर्थ पुरुषार्थ होने से वह प्रधान । अर्थात् पैसे के अभाव में धम लिए प्रथम अर्धपुरुषार्थ को मुख्य सिद्धि व भोग सिद्धि नहीं हो सकती है । अतः धर्म और काम की सुख सिद्धि के बताया है। सर्वत्र आवश्यकता और अवसर का लक्ष्य रखना चाहिए । 110 11 " इति काम समुद्देशः समाप्तः । 13 ।। प.पूज्य विश्ववंद्य, चारित्रचक्रवर्ती मुनिकुञ्जर सम्राट् महान् तपस्वी, वीतरागी दिगम्बराचार्य श्री 108 आदिसागर जी अंकलीकर के पट्टाधीश आचार्य शिरोमणि, समाधि सम्राट् श्री महीवीर कीर्ति जी महाराज की संघस्था, श्री प. पूज्य कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य श्री विमल सागर जी की शिष्या ज्ञानचिन्तामणि, सिद्धान्त विशारदा प्रथम गणिनी आर्यिका विजयामती जी द्वारा विजयोदय हिन्दी टीका का तृतीय परिच्छेद परम् पूज्य सिद्धान्त चक्रवर्ती, अंकलीकर के तृतीय पट्टाधीश, उग्रतपस्वी सम्राट् आचार्य प्रवर श्री सन्मति सागर जी महाराज के पावन चरण सानिध्य में समाप्त हुआ
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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