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नीति वाक्यामृतम्
विशेषार्थ :- सदाचारी गृहस्थ को एक ही समय में प्राप्त होने पर भी प्रथम धर्माचरण करना चाहिए । चक्रवर्ती भरत राजा को एक समय में एक साथ तीन सूचनाएँ मिली । तीन सेवक एक साथ आये । प्रथम ने कहा राजन्! आपकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है, उसी समय दूसरा कह रहा है प्रभो ! आपको पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ है और तीसरा बोल रहा है राजेश्वर ! आपके पुण्योदय से श्री ऋषभदेव को कैवल्य प्राप्त हुआ है । नीतिज्ञ भरत ने विचार किया प्रभु को केवलज्ञान प्राप्ति धर्म पुरुषार्थ का फल है, पुत्रोत्पत्ति काम का और चक्रोत्पत्ति अर्थ पुरुषार्थ की द्योतक है । अत: मुझे सर्व प्रथम जिनेन्द्र की पूजा करना चाहिए तदनन्तर चक्ररत की और उसके बाद पुत्रोत्सव मनाना योग्य है । इसी प्रकार उसने क्रियायें सम्पादन की। इससे स्पष्ट होता है सर्वप्रथम धर्मपुरुषार्थ, पुनः अर्थ और काम सेवन शिष्टाचार के अनुकूल हैं । भागुरि ने भी लिखा है
धर्म चिन्तां तृतीयांशं दिवसस्य समाचरेत् ।
ततो वित्तार्जने तावन्मानं कामार्जने तथा ।।1॥ अर्थ :- मनुष्य को दिन के तीन भाग कर एक-प्रथम भाग में धर्मार्जन करना चाहिए, दूसरे हिस्से में धनार्जन और तीसरे में काम पुरुषार्थ सेवन करना योग्य है । क्रमानुसार क्रिया सम्यक् फल प्रदान करती है । अतः विधिवत् पुरुषार्थों का सेवन कर सुख-शान्ति सम्पादन करना चाहिए । यही सजनों का कर्तव्य है । समयानुसार गुरुनाई का अनुष्ठान
___कालासहत्त्वे पुनरर्थ एव ।16॥ मू.पु.में "कालसहत्वे पुनरर्थ एव" पाठ है । अन्वयार्थ :- (काल) समय (असहत्वे) पर्याप्त न होने पर (पुनः) आगे (अर्थ) अर्थोपार्जन (एव) ही
(कुर्यात्) करे।
धर्म और काम अन्य समय में भी किये जा सकते हैं । अतएव तीनों में अर्थ ही श्रेष्ठ है ।
विशेषार्थ :- यदि न्यायोपात्त धनार्जन का अवसर प्राप्त हुआ हो, और उसके निकल जाने पर विशेष क्षति आने की संभावना हो कौटुम्बिक समस्याएँ आने का सन्देह होता हो, दरिद्रता का अवसर आ सकता हो, धर्म कार्यों के सम्पादन में विघ्न-बाधाएँ आने का अंदेशा हो तो प्रथम अर्थार्जन करना ही उत्तम है । क्योंकि "अर्थ वाह्यो धर्मो न भवति ।" अर्थ-धन के बिना-दरिद्र दशा में धर्मानुष्ठान भी संभव नहीं हो सकते हैं । सांसारिक सुखोपभोग भी संभव नहीं हो सकते । नारद विद्वान ने भी इसी बात की पुष्टी की है -
अर्थ कामौ न सिद्धये ते दरिद्राणां कथंचन
तस्मादर्थो गुरुस्ताभ्यां संचिन्त्यो ज्ञायते बुधैः ।।।। अर्थ :- दरिद्र पुरुषों के धर्म और काम पुरुषार्थ सिद्ध नहीं होते । अतः विद्वानों ने धर्म और काम पुरुषार्थ की अपेक्षा अर्थ पुरुषार्थ को श्रेष्ठ कहा है । परन्तु इसे एकान्त नहीं समझना चाहिए ।
धर्माचार्यों ने कहा है
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