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________________ नीति वाक्यामृतम्। अर्थ :- जो कामी पुरुष निरन्तर अपनी कमनीय रूप लावण्यमयी प्रिया-स्त्री का सेवन करता है उसे धृतराष्ट्र के पिता के समान यक्ष्मातपेदिक-टी.बी. के रोग का शिकार बनना पडता है । अर्थात् धातु क्षीण होने से अतिशीघ्र मृत्युवरण के कारणीभूत रोगों का शिकार होना पड़ता है । अतः भोगासक्ति का त्याग कर ही विवेकी को सुखी होना चाहिए । "नीति शास्त्र विरुद्ध काम सेवन से हानि" विरुद्धकामवृत्तिः समृद्धोऽपि न चिर नन्दति ॥14॥ अन्वयार्थ :- (कामवृत्तिः) काम नीति के (विरुद्धः) विपरीत चलने वाला (समृद्धः) सशक्त (अपि) भी (चिरम्) अधिक समय (नन्दति) सुखी रहता है (न) नहीं । नीतिशास्त्र के विरुद्ध कामसेवन में रत रहने वाला मनुष्य अधिक समय पर्यन्त सुखानुभव नहीं कर सकता है क्योंकि भोगोपभोग करने के लिए शारीरिक बल भी अपेक्षित होता है। विशेषार्थ :- धन बल, शरीर बल से भी पुष्ट व्यक्ति भागासत होने गोति सदाचार से विमुख हो दुः ख, दैन्य, ताप से युक्त हो जाता है । वह रति सुख को सर्वस्व मान बैठता है परन्तु उसे भी अधिक काल तक पा नहीं सकता । क्योंकि असत्-नीतिविरुद्ध आचरण से संचित सम्पत्ति बर्वाद हो जाती है, नवीन उपार्जन कर ही नहीं पाता, फिर क्या होगा? दारिद्रय का भीषण संकट सहना ही पड़ेगा । नीति विरुद्ध का अभिप्राय है परस्त्री सेवन, वैश्या सेवन । ये दोनों ही कार्य लोक विरुद्ध, समाज विरुद्ध और धर्म विरुद्ध हैं । इन्हें त्यागने पर ही मानवीय जीवन का आनन्द प्राप्त होता है । ऋषिपुत्रक ने भी इन कार्यों की भत्सर्ना की है - परदार रतो योऽत्र पुरुषः संप्रजायते । धनाढ्योऽपि दरिद्रः स्याद् दुष्कीति च लभते सदा ॥ (उत्तर पद संस्कृत टीका का नहीं है ।) आई :- लोक में परनारी सेवक मनुष्य दरिद्री हो जाता है और सतत् अपकीर्ति को प्राप्त करता है । रावण जैसा त्रिखण्डाधिपति भी पर स्त्री सेवन के परिणाम से सुवर्ण की लंका को गंवा बैठा और कुयश का आज तक पात्र बना हुआ है । सर्वत्र उसका अपयश व्याप्त है । निष्कर्ष यही है कि सुख समृद्धि यश चाहने वालों को काम वासना का दास नहीं बनना चाहिए । धर्म, अर्थ व काम पुरुषार्थों में प्रथम किसका अनुष्ठान करना 'धर्मार्थकामानां युगपत् समवाये पूर्वः पूर्वो गरीयान् ।15॥" अन्वयार्थ :- (धर्मार्थकामानाम्) धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों क (युगपत्) एक समय में (समवाये) एक साथ आने पर (पूर्व:) प्रथम पहले (पूर्व:) प्रथम-धर्म पुरुषार्थ ही (गरीयान्) श्रेष्त माना है-सेव्य है । धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ यदि एक ही काल में एक साथ उपस्थित हो जाये तो सत्पुरुषों को सर्व प्रथम ती धर्मानुष्ठान करना चाहिए पुनः क्रमानुसार अर्थ और काम पुरुषार्थ सेवनीय है ।
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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