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नीति वाक्यामृतम्
काम रोग महा भयंकर रोग है, इसकी औषधि भी उतनी ही दुर्लभ है। कामीजनों को हितोपदेशादि उपाय अप्रिय प्रतीत होते हैं, जिस प्रकार तस्कर को चांदनी रात, व्यभिचारिणी को ब्रह्मचारी पुरुष अप्रिय लगते हैं, उसी प्रकार कामासक्त पुरुष को हितकारी प्रवचन नहीं सुहाता । नीतिकार जैमिनी ने भी कहा है
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न शृणोति पितुर्वाक्यं न मातुर्न हितस्य च । कामेन विजितो मर्त्यस्ततो नाशं प्रगच्छति ॥1॥
अर्थ :- कामवासना से मूढ व्यक्ति पिता, माता और हितैषियों की बात नहीं सुनता, न मानता है, इससे उसका जीवन नष्ट प्राय हो जाता है । वह गुणों के साथ अपनी निर्मल कीर्तिध्वजा को मलिन कर लेता है और परलोक में दुर्गति का पात्र बनता है। वर्तमान धन जन की क्षति का भी शिकार होता है । यह निःसन्देह हैं । स्त्री में अत्यन्त आसक्ति करने वाले की हानि :
न तस्य धनं धर्मः शरीरं वा यस्यास्ति स्त्रीष्वत्यासक्तिः 1113 ॥
अन्वयार्थ :- (यस्य) जिन पुरुषों के (स्त्रीषु) स्त्रियों में (अत्सासक्तिः) विशेष आतिरेक आसक्ति (अस्ति ) है ( तस्य) उस पुरुष का ( धनम् ) सम्पत्ति (धर्म) धर्म (वा) अथवा (शरीरं) देह (न) नहीं रहती ।
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स्त्रियों में आसक्त - कामी पुरुष अपने धन, धर्म और शरीर से भी हाथ धो बैठता है । अर्थात् उसके अविवेक से धन, धर्म और शरीर का ह्रास हो जाता है क्योंकि कामासक्ति से हेयोपादेय विचार नष्ट हो जाते हैं।
विशेषार्थ :- स्त्रियों में आसक्त व्यक्ति, व्यापार, कृषि, सर्विस आदि जीविकोपार्जित कर्मों से विरक्त हो जाता है । फलतः धनार्जन नहीं हो पाता। यही नहीं ऋणी भी हो जाता है संचित धन नष्ट होना स्वाभाविक ही है । काम वासना में लीन हुआ धर्म-कर्म विमुख हो जाता है, पूजा, दान, अनुष्ठानादि करने का भाव ही नहीं होता । धार्मिक प्रभावनादि कार्य सुहाते नहीं । देव, शास्त्र, गुरुओं के दर्शन, स्वाध्याय, वैयावृत्ति को व्यर्थ मानता है । भोगलिप्सा वृद्धिंगत होने से परिणाम शुद्धि नहीं रह पाती । अतः धर्म भ्रष्ट कहो या धर्मविहीन हो जाता है ।
इसी प्रकार अधिक वीर्य पतन होने से राजयक्ष्यादि संक्रामक रोग ग्रस्त हो जाता है । शरीर बल क्षीण हो जाता है । असाध्य रोगों का शिकार बनकर असमय में ही मृत्यु का ग्रास हो जाता है । अतएव साम्पत्तिक- आर्थिक, धार्मिक और शारीरिक उत्थान चाहने वालों को नैतिकाचार का पालन करना चाहिए, काम के पीछे पड़कर सदाचार नहीं खोना चाहिए ।
नीतिकार कामन्दक ने भी कहा है
नितान्तं संप्रसक्तानां
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कान्तामुखविलोकने नाशमायांति सुव्यक्तं यौवनेन समंश्रियः ।।1
अर्थ
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सतत् कान्ताओं के आनन का अवलोकन करने में दत्तचित्त-पुरुषों का वैभव यौवन के साथ निश्चय से शीघ्र नष्ट हो जाता है । वल्लभदेव का विचार भी विचारणीय है
यः संसेव्यते कामी कामिनीं सततं प्रियाम् । तस्य संजाय ते यक्ष्मा धृतराष्ट्र पितुर्यथा ॥12 ॥
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