________________
मीति वाक्यामृतम्।
जिस प्रकार चश्मे को दृष्टि में सहायक निमित्त होने से नेत्र माना जाता है, उसी प्रकार नीतिशास्त्र के अध्ययन को भी इन्द्रियों के जय-वश करने में निमित्त होने से 'इन्द्रियजय' माना गया है । अत: कारण में कार्य का उपचार करना निर्दोष है। काम के दोष निरूपण
योऽनङ्गेनापि जीयते स कथं पुष्टाङ्गानरातीन् जयेत ।।11।। अन्वयार्थ :- (यः) जो व्यक्ति (अनङ्गेन) कामदेव से (अपि) भी (जीयते) जीता गया (स) वह (पुष्टाङ्गान्) राज्य शासन के अंगों से पुष्ट (अरातीन् } प्रात्रु राजाओं को (कथं) किस प्रकार (जयेत) जीत सकता है ?
अनङ्ग-कामदेव अङ्गरहित है उसे ही नहीं जीत सका तो फिर पुष्ट-अंग वाले राजा को किस प्रकार परास्त कर सकता है।
विशेषार्थ :- कामदेव को शरीर रहित माना जाता है, शरीर विहीन को अङ्ग नहीं होते हैं, वह निर्बलकमजोर हुआ, यहाँ नीति है कि जो निर्वल को परास्त नहीं कर सकता वह भला-स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, एवं सेना आदि से युक्त शत्रुओं को किस प्रकार परास्त कर सकता है । नहीं जीत सकता । नीतिकार भागरि ने कहा है -
ये भूपाः काम संसक्ता, निजराजाङ्गदुर्बलाः ।
दुष्टाङ्गास्तान् पराहन्युः पुष्टाङ्गा दुर्बलानि च ।।1।। अर्थ :- काम के वशीभूत राजाओं के राज्य के अङ्ग-स्वामी, मंत्री आदि निर्बल-शक्तिविहीन, दुष्ट, विरोधी, बंचक हो जाते हैं, फलतः वलिष्ठ राजाओं द्वारा सहज परास्त कर दिये जाते हैं । उन्हें मरण को वश करना पड़ता है । विजय के इच्छुक को प्रथम काम पर विजय करना चाहिए ।
महाराज सत्यंधर अपनी प्रिया विजया में कामासक्त हुआ, फलतः उसी के मन्त्री काष्ठांगार द्वारा राज्यभ्रष्ट हो मरण को प्राप्त हुआ । काम की विचेष्टा भयंकर है । कहा भी है -
कामासक्त चित्तानां गुणाः को वा न नश्यति ।
न वैदूष्यं न पाण्डित्यं नाभिजातित्वशुद्धिभाक् ॥ अर्थात्-काम पीडित मनुष्य को सभी गुण नष्ट हो जाते हैं । उसकी विद्वत्ता, पाण्डित्य, श्रेष्ठ जाति व महानतागौरव आदि मलिन हो जाते हैं । कामासक्त अपने किस गुण की रक्षा करता है ? किसी की नहीं वह तो गुणों की ओर से पण अन्धा ही बन जाता है, फिर रक्षा क्या करेगा? अतः गुणी को अपने गुणों की रक्षा के लिए कामवासना का परित्याग करना चाहिए । "कामी की क्षति"
कामासक्तस्य नास्ति चिकित्सितम् ॥12॥ अर्थ :- (कामासक्तस्य) काम पीडा से ग्रसित की (चिकित्सितम्) औषधि (नास्ति) नहीं है ।
77