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________________ नीति वाक्यामृतम् षट्खण्डाधिपति भरत चक्रवर्ती के समान जो इन पुरुषार्थों का यथायोग्य सेवन करता है वह अचिरात् अन्तिम लक्ष्य पर पहुँच जाता है । शनैः शनैः गमन करने वाला नियम से गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता है, किन्तु वेहताश दौड़ने वाले का पहुँचना शंकास्पद है, फिसलने का भय है । अतः मध्यम मार्ग ही श्रेयस्कर है ।। किसी एक पुरुषार्थ के सेवन से हानि "एकोात्यासेवितो धर्मार्थकामानामात्मानमितरौ च पीडयति ।।4।' अन्वयार्थ :- (धर्मार्थकामानाम्) धर्म, अर्थ और काम इन तीनों में से किसी (एको) एक का (अत्यासेवित:) आतिशायि सेवन (हि) निश्चय से (आत्मानम्) स्वयं को (च) और (इतरौ) शेष दो को (पीडयति) नष्ट करता है । तीनों पुरुषार्थों में से किसी एक का ही निरपेक्ष भोग किया जाये तो वह शेष दो पुरुषार्थों का भी घातक होता है और स्वयं भी फलवान नहीं होता । विशेषार्थ :- जो व्यक्ति निरन्तर धर्म पुरुषार्थ का ही सेवन करता है, वह दूसरे अर्थ और काम को नष्ट कर देता है क्योंकि उसका समस्तकाल धर्म पालन में ही चला जाता है । इसी प्रकार धन सञ्चय करने वाला धर्म और काम से वंचित रह जाता है तथा कामासक्त धर्म और धन से पराङ्मुख रहता है । अतएव न्यायाचारी को योग्यायोग्य विचार कर यथासमय प्रत्येक का सेवन करना चाहिए । विद्वान वृहस्पति ने भी लिखा है - धर्म संसक्तमनसां कामे स्यात्सुविरागता । __ अर्थे चापि विशेषेण यतः स स्यादधर्मतः ।।1।। अर्थ :- जिनकी चित्तवृत्तियाँ धार्मिक अनुष्ठानों में सदा लगी हुयी हैं वे काम से तथा अर्थ से विशेष विरक्त रहते हैं, क्योंकि धन संचय करने में पाप लगता है । वास्तविक लौकिक व पारमार्थिक सुखेच्छुओं को तीनों पुरुषार्थों का यथायोग्य सेवन करना चाहिए। "कष्ट सहकर धन कमाने वाले का कथन" परार्थं भारवाहिन इवात्मसुखंनिसन्धानस्य धनोपार्जनम् ।।5॥ अन्वयार्थ :- (आत्मसुखं) अपने सुख को (निरन्धानस्य) नष्ट करने वाले का (धनोपार्जनम्) धन कमाने का कार्य (पारार्थं) दूसरे के लिए (भारवाहिनः) बोझा ढोने के (इव) समान (अस्ति) है । वर्तमान-विद्यमान सुख की उपेक्षा कर जो व्यक्ति धन कमाने की चिन्ता में निमग्न रहता है, रात-दिन अनेकों कष्ट सहता है, उसका धन उपार्जन दूसरे के बोझा ढोने के समान व्यर्थ होता है । विशेषार्थ :- जो अज्ञानी अपने प्राप्त सुखोपभोग की परवाह न कर कष्टसाध्य श्रम कर धनोपार्जन में ही लगा रहता है, वह पशुवत् कोरा भारवाही है क्योंकि पशु भार ढोते हैं, अन्नादि लादते हैं परन्तु उसमें से कुछ भी खा नहीं सकते उसी प्रकार कठोर परिश्रम कर भी जो अपने सुख-दुःख की ओर ध्यान नहीं देता वह मूर्ख निरा
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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