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________________ मीति वाक्यामृतम् पशु है । स्वयं अर्जित सम्पत्ति का भी स्वयं उपभोग नहीं करता । अतः वह सुखी नहीं होता । व्यास नामक विद्वान कहता है कि - अतिक्लेशेन ये चार्था धर्मस्यातिक्रमेण च 1 शत्रूणां तेषु वृक्ष !! अर्थ :- अत्यन्त भीषण संकटों को सहकर, धर्म का उलंघन कर एवं शत्रुओं को नष्ट कर जो सम्पत्ति एकत्रित की जाती है, हे आत्मन् ! इस प्रकार की अन्याय और छलकपट से कमाई जाने वाली सम्पदा में अपने मन की प्रवृत्ति मत करो । "सम्पत्तियों की साथकता" इन्द्रियमनः प्रसादनफला हि विभूतयः ॥ 6 ॥ अन्वयार्थ :- (हि) निश्चय से (विभूतयः) सम्पत्ति का ( फलाः) फल (इन्द्रियमन) इन्द्रियों और मन का ( प्रसादन) प्रसन्न होना (अस्ति ) है । धन वही है जो धनिकों की इन्द्रियों और मन को प्रसन्न करे । विशेषार्थ :- कृपण मनुष्य धन को प्रायः भूमि उदर में प्रच्छन्न कर रखते हैं, उसका उपभोग करते नहीं है । अपनी पत्नी के लिए भी वस्त्रालंकार में व्यय नहीं करते । साज शृंगार का साधन भी नहीं जुटाते । फलतः इन्द्रिय विषय सुखानुभव से वंचित रहते हैं। सन्तान भी उसे नहीं चाहती अपितु कोशती है, फिर उनसे सेवा सुश्रुषादि फल कहाँ से मिलेगा ? नहीं मिल सकता। व्यास विद्वान ने भी यही अभिप्राय निम्न प्रकार प्रकट किया है यद्धनं विषयाणां च नैवाह लादकरं परम् । तत्तेषां निष्फलं ज्ञेयं षंडाणामिव यौवनम् ॥1॥ अर्थ :- जो धन पञ्चेन्द्रियों के अनुकूल विषय देकर उन्हें आनन्द प्रदान नहीं करें, उस धन से क्या प्रयोजन ? उनका जीवन नपुंसक के समान यौवन धारी को निष्फल बना देता है। अभिप्राय यह है कि सम्पदा पाकर सतत योग्य भोगों का सेवन करना चाहिए अन्यथा वह सम्पत्ति भार रूप ही कहलायेगी, मात्र उसका रक्षक बनना होगा . । इसी विषय को चारायण ने कहा है - सेवादिभिः परिक्लेशैर्विद्यमानधनोऽपि यः I सन्तापं मनसः कुर्यात् तस्योषरधर्षणम् ॥11॥ अर्थ :- जो पुमान् धनेश्वर होकर दूसरों की सेवा चाकरी आदि करके मानसिक कष्ट उठाता है उसका धन ऊषर (पथरीली) भूमि को जोतने के समान निष्फल जाता | अतः स्वार्जित धन सम्पदा का सदुपयोग भोग और दान से करना चाहिए। 73
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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