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-नीति वाक्यामृतम् ।
से अधिक व्यय नहीं करती है । आय के अन्तर्गत व्यय खर्च करना सद्गृहणी का प्रथम लक्षण है । इससे दाना पूजादि श्रावकोचित गृहस्थ धर्म का पालन सुचारु रूप से चलता है और धन का अभाव भी नहीं होता । अर्थात् धर्म और अर्थ दोनों पुरुषार्थों के साथ-साथ काम पुरुषार्थ भी सिद्ध होता है । तीनो पुरुषार्थों की सेवन विधिः
सम वा त्रिवर्ग सेवेत ।।७।। अन्वयार्थ :- (वा) अथवा (त्रिवर्गम्) तीनों वर्गों धर्म, अर्थ व काम को (सम) समान काल विभाग कर (सेवेत) सेवन करना चाहिए ।
सामान्य-सदाचारी व्यक्ति धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों को समय का समान विभाग करके सेवन करे ।
विशेषार्थ :- दिन के 12 घण्टे होते हैं । इनका त्रिभाग करने पर 4 घण्टे होते हैं इस क्रम से तीनों को सेवन करने से हर प्रकार से सुख शान्ति बनी रहती है । इसके विपरीत जो व्यक्ति कामसेवन में ही अपनी शक्ति व समय को गंवाता है-बहुभाग व्यतीत करता है वह अपने धर्म व अर्थ दोनों पुरुषार्थों को नष्ट कर देता है । जो केवल धर्म पुरुषार्थ में ही सदा लगा रहता है, वह काम और अर्थ से वंचित रह जाता है । इसी प्रकार अर्थ के ही पीछे दौड़नेवाला काम और धर्म का यथायोग्य सेवन करने में समर्थ नहीं होता है । अतएव सुखाभिलाषियों को नियमानुसार काल विभाग कर तीनों को समान रूप से सेवन करना चाहिए । विद्वान नारद भी उपर्युक्त आचार्य श्री की मान्यता का समर्थन करते हैं -
प्रहरं त्रिभागं च प्रथमं धर्ममाचरेत् ।
द्वितीयं तु ततो वित्तं तृतीयं कामसेवने ।।1।। अर्थ :- मनुष्य को दिन के तीन भाग करके पहले विभाग को धर्मानुष्ठान में और दूसरे को धन कमाने में एवं तीसरे को काम सेवन में उपयोग करना चाहिए । वादीभसिंह सूरि ने भी कहा है कि -
परस्पराविरोधेन त्रिवर्गों यदि सेव्यते । अनर्गलमतः सौख्यमपवर्गोऽप्यनुक मात् ।।
छत्र चू.म. |1|| लम्ब अर्थ :- यदि धर्म, अर्थ और काम ये तीनों पुरुषार्थ परस्पर की बाधारहित सेवन किये जाय तो इससे उन्हें बिना रुकावट के स्वर्ग मोक्ष की लक्ष्मी प्राप्त होती है । अर्थात् स्वर्ग तो मिलता ही है क्रमश: मोक्ष भी प्राप्त होता
सारांश यही है "अति सर्वत्र वर्जयेत्'' अति किसी भी क्षेत्र में करना उचित नहीं है । गृहस्थाश्रम गृहस्थ धर्म का आस्पद है । तदनुसार व्रत, नियम, सदाचार और शिष्टाचारपूर्वक सक्वेिक उसका संचालन करना चाहिए।