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नीति वाक्यामृतम्
अर्थ :- जिसके अपनी धर्मपत्नी के साथ रतिक्रीड़ा करने पर सर्व इन्द्रियों अनुरक्त होती हैं उसे काम समझना चाहिए। इससे विपरीत प्रवृत्ति-परस्त्री एवं वेश्या सेवन निंद्य कुचेष्टा है ।
जो पुरुष इन्द्रियों को सन्तुष्ट न कर काम सेवन करता है वह उसकी पाशविक क्रीड़ा समझनी चाहिए । स्व स्त्री भोग भी समयानुकूल होना चाहिए ।
जो कामी मनुष्य इन्द्रियों को सन्तप्त कर काम वासना तृप्ति का उपाय करता है अर्थात् स्त्री संभोग करता है उसकी वह चेष्टा अन्धे के समक्ष नृत्य और वधिर के सामने गीत गाने के सदृश है । अर्थात् व्यर्थ का आयास मात्र है। स्वस्त्री सुखोपभोग की साधन है और धर्म की रक्षिका है -
कीर्ति शील पतिप्रेम में, जो पूरी कर्मण्य ।
धर्म धुरीणा धन्य वह, उस सम और न अन्य 16॥ अर्थात् उत्तम सहधर्मिणी वह है जो अपने धर्म और सुयश की रक्षा करते हुए पति प्रेम की आराधना करती है अदि पति सेन, पर होती है । अत: स्वदार सन्तोष व्रत पालन करना चाहिए । इसी प्रकार नारी को एक पतिव्रत में रत रहकर काम भोग सेवन करना चाहिए ।। काम सेवन क्रम
धर्मार्थाविरोधेन कामं सेवेत ततः सुखी स्यात् ।।2॥ अन्वयार्थ :- (धर्मः) धर्मपुरुषार्थ (अर्थः) अर्थपुरुषार्थ से (अविरोधेन) अनुकूल रहते हुए (काम) काम पुरुषार्थ को (सेवेत) सेवन करें (ततः) उससे (सुखी) सुखी (स्यात्) होगा ।
धर्म और अर्थ की अनुकूलता के साथ काम पुरुषार्थ सफल होता है ।
विशेषार्थ :- सदाचारी, नीतिज्ञ पुरुष का कर्तव्य है कि वह धर्म व अर्थ पुरुषार्थ की रक्षा व वृद्धि करता हुआ काम पुरुषार्थ का सेवन करे जिससे कि सुखी जीवन यापन कर सके । हारीत विद्वान का कथन दर्शनीय है.
परदारांस्त्यजेद्यस्तु वेश्यां चैव सदा नरः । न तस्य कामजो दोषः सुखिनो न धनक्षयः ॥
नी.श्लो. जो मानव परमहिला और वेश्या सेवन का नव कोटि से त्याग करता है, वह काम जन्य दोष-धन क्षति और धर्म नाश से त्राण पा लेता है । क्योंकि पत्नी का लक्षण करते हुए कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं -
यस्यामस्ति सुपत्नीत्वं सैवास्ति गृहिणी सती । गृहस्यायमनालोच्य व्ययते न पतिवता ||1॥
परि. 6 कुरल. अर्थ :- वही उत्तम सहधर्मिणी है, जिसमें सुपत्नी के सर्वगुण विद्यमान हों और जो अपने पति की सामर्थ्य
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