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________________ नीति वाक्यामृतम् काम समुद्देशः काम का स्वरूप व लक्षण आभिमानिकर सानुविद्धा यतः सर्वेन्द्रियप्रीतिः स कामः ॥ अन्वयार्थ :- (यतः) जिससे (अभिमानक) सर्व ओर से या सर्व प्रकार से (सर्वाः) सम्पूर्ण (इन्द्रियप्रीतिः) इन्द्रियाँ प्रसन्न होती हैं (स:) वह (काम:) काम (अस्ति) है । मैथुन सेवन को काम कहते हैं यह स्पशन इन्द्रिय का प्रधान विषय है परन्तु इससे सर्व इन्द्रियाँ उत्तेजित हो सुखानुभव करती हैं इसीलिए इसे काम कहा है । विशेषार्थ :- कामी पुरुष को अपनी प्रिय कामिनी के मधुर शब्द सुनने से कर्णेन्द्रिय प्रसन्न होती है, रूपावलोकन से चक्षुरिन्द्रिय आनन्दित होती है, सुकोमल अंग स्पर्श से स्पर्शनेन्द्रिय हर्षित होती है, प्रीति भोज से रसना और कामोत्पादक गंधादि से घ्राणेन्द्रिय भी सुखानुभव करती है । इस प्रकार सम्पूर्ण इन्द्रियाँ सुखानुभव करती हैं । किन्तु यह वैषयिक सुख स्व स्त्री सम्बन्धी काम पुरुषार्थ का फल है । परस्त्री सेवन से धर्म का नाश होता है और वेश्या सेवन से धर्म एवं धन दोनों का ही विनाश होना निश्चित है । अतः नैतिक पुरुषों को उक्त दोनों अनर्थों का त्याग कर धर्मानुकूल, समाज और अग्नि की साक्षीपूर्वक अपनी विवाहित स्त्री को ही धर्मपत्नी स्वीकार करना चाहिए । उसी में सन्तोष कर एक पत्नीव्रत पालन करना चाहिए । कुल मर्यादा और धर्म मर्यादा के अनुसार स्वजातीय कन्या के साथ ही पाणिग्रहण संस्कार करना चाहिए । विद्वान राजपुत्र कहता है - सर्वेन्द्रियानुरागः स्यात् यस्याः संसेवनेन च । स च कामःपरिज्ञेयो यत्तदन्यद्विचेष्टितम् ।।1।। इन्द्रियाणामसन्तोषं यः कश्चित् सेवते स्त्रियम् । स करोति पशोः कर्म नर रूपस्य मोहनम् ॥2॥ यदिन्द्रिय विरोधेन मोहनं क्रियते जनः । तदन्धस्य पुरे नृत्यं सुगीतं अधिरस्य च ।।३॥
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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