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नीति वाक्यामृतम्
नाविचार्य क्वचित् किञ्चिद् विधातव्यं मनीषिणा ।
पूर्वं प्रारम्भ पश्चाच्च शोचन्ति हतबुद्धयः ॥7 ॥
अर्थ
:- सम्यक् प्रकार विचार किये बिना किसी काम को करने का निश्चय मत करो । वह मूर्ख अज्ञानी है जो काम प्रारम्भ करके कहे कि पीछे सोच लेंगे । देखा जायेगा । क्योंकि
सन्मार्गं यः समुत्सृज्य
स्वकार्याणि चिकीर्षति 1 तस्य यत्ना धुवं मोघा : साहाय्यं प्राप्य भूर्यपि ॥18 ॥
अर्थात् जो
सहायता करने वाले क्यों न रहें, वह सफल नहीं हो सकता ।
कार कार्य करता है उसका सम्पूर्ण श्रम व्यर्थ हो जाता है। भले ही अनेकों
इस विषय में विद्वान शुक्र के विचार भी मान्य हैं
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आगमे यस्य चत्वारो
निर्गमे सार्धपञ्चमः 1
तस्यार्थाः प्रक्षयं यान्ति सुप्रभूतोऽपि चेत्स्थितः
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अर्थ :- जिस व्यक्ति की दैनिक आय चार रुपये है और व्यय पाँच रुपये करता है उसकी सम्पत्ति अवश्य ही एक दिन समाप्त - नष्ट हो जाती है। चाहे वह कितना ही धनाढ्य क्यों न हो । भावार्थ यह है कि आय के अन्दर खर्च करने वाला सुखी रहता है ।
मूलहर का लक्षण
है :
यः पितृपैतामहमर्थमन्यायेन भक्षयति स मूलहरः ॥ 8 ॥
अन्वयार्थ :- (यः) जो प्रमादी ( अन्यायेन ) अन्याय से (पितृ) पिता (पैतामहम् ) दादा आदि के ( अर्थम्) धन को (भक्षयति) खाता है (सः) वह (मूलहर:) मूलहर ( कथ्यते ) कहा जाता है ।
जो स्वयं पुरुषार्थ न कर अपने दादा परदादा, पिता की सम्पत्ति का भोग करता है वह निश्चय से 'मूलहर' कहलाता है ।
विशेषार्थ :- अटूट सम्पत्ति भी वृद्धि के अभाव में अवश्य एक न एक दिन विनष्ट हो जाती है । कहा भी
सन्त्येवं हि बहूधोगा ये पूर्वं लाभ दर्शकाः समूल घातका अन्ते तेषु हस्तो न धीमताम् ॥3 ॥
कुरल ॥
अर्थ :- ऐसे भी व्यापार-धन्धे व उद्योग हैं जो नफा-लाभ का हराभरा उद्यान दिखाकर अन्त में नष्ट हो जाते हैं । धीमान् ऐसे उद्योगों में हाथ नहीं लगाते। क्योंकि उनसे निज का धन भी नष्ट हो जाता है
मूल
से ही । नीतिकार
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