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नीति वाक्यामृतम्
कुए से पानी न निकाला जाय तो स्वच्छ निर्मल जल भी अपेय हो जाता है और नष्ट हो जाता है । उसी प्रकार विद्या-सरस्वती को वितरण नहीं किया जाय तो विस्मृत होकर नष्टप्राय हो जाती है यही दशा धन की है - दान-पुजादि धर्म कार्यों में न लगाया तो नष्ट हो जाता है । एक विद्वान वृहस्पति ने भी कहा है -
"तीर्थेषु योजिता अर्था धनिनां वृद्धिमाप्नोति" अर्थात् श्रीमन्तों की सम्पत्तियाँ तीर्थों-पात्रों को यथायोग्य दान देने से ही वृद्धिंगत होती हैं । सत्पुरुषों को पात्रदानादि सत्कर्म करते रहना चाहिए । धन नष्ट करने वाले साधन
"तादाविक-मूलहर-कदर्येषु नासुलभः प्रत्यवायः ।।6 ॥"
अन्वयार्थ :- (तादात्विक) बिना विचारे आय से अधिक व्यय करने वाला, (मूलहरः) मूल को खाने वाला (कदर्येषु) लोभीजनों में (प्रत्यवाय:) धन विनाश (असुलभः) कठिन (न) नहीं है ।
आमदनी से अधिक खर्च करने वाला, ब्याज को छोड़कर मूल भक्षक और लोभीजनों की सम्पदा सरलता से नष्ट हो जाती है।
विशेषार्थ :- जो व्यक्ति पुरुषार्थहीन हैं, शेखी खोर हैं अर्थात् आमदनी से अधिक खर्च करते हैं आगे-पीछे का विचार नहीं करते, अपनी पैतृक सम्पत्ति को बैठे-बैठे उड़ाते हैं, और जो लोभी-लालच में ही धन को छाती से चिपकाये रहते हैं उन मनुष्यों का धन नष्ट हो जाता है । नीतिकार शुक्र ने कहा है -
अचिन्तितार्थ पश्नाति योऽन्योपार्जित भक्षकः ।
कृपणश्च त्रयोऽप्ये ते प्रत्यवायस्य मन्दिरम् ।। अर्थ :- बिना सोचे विचारे धन को खर्च करने वाला, पराई-कमाई की सम्पत्ति को भोग करने वाला और कृपण ये तीनों प्रकार के व्यक्ति धननाश के स्थान हैं ।। धन की सुरक्षा के इच्छुकों को इनका परिहार करना चाहिए । तादात्विक का लक्षण
यः किमप्यसंचिन्त्योत्पन्नमर्थं व्ययति स तादात्विकः ।।
अन्वयार्थ :- (यः) जो पुरुष (किमपि) कुछ भी (अचिन्त्यः) विचार न कर (उत्पन्नम) उपार्जित-कमाये हुए (अर्थम्) धन को (व्ययति) निष्प्रयोजन खर्च करता है (स:) वह (तादात्विक:) तादात्विक कहलाता है । विचारविमर्श करके कार्य करना चाहिए । जो फल की चिन्ता न कर कार्य करता है वह पश्चाताप का भागी होता है।
विशेषार्थ :- मनुष्य विचारशील प्राणी है । किसी भी कार्य के करने के पूर्व उसके फल का विचार करना अनिवार्य है । कुन्दकुन्द देव ने कहा है -
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