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नीति वाक्यामृतम्
गुरु ने भी कहा है -
पितृपैतामहं वित्तं व्यसनर्यस्तु भक्षयेत् ।।
अन्यन्नोपार्जयेत् किंचित् स दरिद्रो भवेद् धुवम् ॥ अर्थ :- जो व्यक्ति पैतृक-पिता व पितामह (दादा) आदि की सम्पत्ति को द्यूत-जुआखेलना, वेश्या सेवन करना आदि अन्यायों में अपव्यय करता है और नवीन धन तनिक भी नहीं कमाता वह निश्चय से दरिद्री हो जाता है । अभिप्राय यह है कि मनुष्य को स्वार्जन करना चाहिए । लोभी का लक्षण
यो भृत्यात्मपीडाभ्यामर्थं संचिनोति स कदर्यः ।।७।।
अन्वयार्थ :- (यः) जो मानव (भृत्यात्मपीडाभ्याम्) सेवकों और स्वयं को पीड़ा देकर (अर्थम्) धन (संचिनोति) संञ्चय करता है (सः) वह (कदर्यः) लोभी (अस्ति) है ।
जो व्यक्ति सेवकों तथा अपने को कष्ट पहुँचाकर धन का संचय करता है उसे कदर्य-लोभी कहते हैं।
विशेषार्थ :- जिसके पास प्रभूत धनराशि है, परन्तु वह न तो स्वयं उसका उपभोग करता है और न नौकरों को उसमें से कुछ देता है, किन्तु जमीन में गत खोदकर रख देता है उसे 'कदर्य' कहते हैं । उसके पास भी धन नहीं रह सकता, क्योंकि अवसर आने पर राजा या चोर ही उसे हर लेते हैं । कहावत है -
___पापी का धन पल्लै जाय, धोबी की हांथे गधा खाय ।। कृपण जोड़-जोड़ कर धर जाता है पीछे से दामाद आदि सरकार मालिक बन जाते हैं । आचार्य कहते हैं -
उत्तमपथ के जो पथिक, यश के रागी साथ ।
मिटते वे भी लोभवश, रच कुचक्र निज हाथ 16॥ अर्थ :- धन के लोभ में पड़कर जो कुचक्र में फंस जाते हैं, वे सन्मार्ग पर चलते हुए सुयश के भूखे रहने पर भी नष्ट हो जाते हैं । और भी कहा है
दूरदृष्टि से हीन का, तृष्णा से संहार निलो भी की श्रेष्ठता, जीते सब संसार 10॥
कुरल. अर्थ :- दूरदर्शिता हीन लालच नाश का कारण होता है, पर जो यह कहता है कि मुझे किसी वस्तु की, आकांक्षा ही नहीं, उस तुष्णाविजयी की 'महत्ता' सर्व विजयी होती है ।
ऐसी बुद्धि न काम की, लालच जिसे फंसाय ।
तथा समझ वह निन्ध जो, दुष्कृति अर्थ सजाय 115॥ लोभवशात् संचित धन की कामना मत करो क्योंकि अन्त में वह निंद्य, दुष्कृत दुःखरूप फल देता है। ,
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