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________________ अबुहजणबोहणत्थं तेणेयं विरइयं सुत्तं ॥ इससे मालूम होता है कि इनके गुरुका नाम श्रीविमलसेन गणथर [ गणी ] था । दर्शनसार नामक ग्रन्थके अंतमें वे अपना परिचय देते हुए लिखते हैं:--- पुवायरियकयाई १] गाहाई संचिऊण एयत्थ । सिरिदेवसेणगाणणा धाराए संवसंतेण ॥४९॥ रइओ [२] दंसणसारो हारो भयाण णवसए नवए । सिरिपासणाहगेहे सुविसुद्धे माहसुद्धदसमीए ॥५०॥ अर्थात् पूर्वाचार्योंकी रची हुई गाथाओंको एक जगह संचिल करके श्रीदेवसेन गणिने धारा नगरीमें निवास करते हुए पार्श्वनाथके मंदिरमें माघ सुदी दशवीं विक्रम [३] संवत् ९९० को यह दर्शनसार नामक ग्रन्थ रचा । इससे निश्चय हो जाता है कि उनका अस्तित्व काल विक्रमकी दरवीं शताब्दि है । अपने अन्य १-पूर्वाचार्यकृता गाथाः संचयित्वा एकत्र । श्रीदेवसेनगणिना धारायां संवसता ॥४९॥ २-रचितो दर्शनसारो हारौ भव्यानां नवशते नवतौ । श्रीपार्श्वनाथगेहे सुविशुद्धे माघशुद्धदशम्याम् ॥५०॥ . __ -दर्शनसास्की अन्य गाथाओंमे जहां जहां संवत्का उल्लेख किया है, वहां वहां 'विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स ' पद देकर विक्रम संवत ही प्रकट किया है । इसके सिवाय धारा (मालवा ) में बिक्रम संवत ही प्रचलित रहा है।
SR No.090298
Book TitleNaychakradi Sangraha
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBansidhar Pandit
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1920
Total Pages194
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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