SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धी, और उसी की इसे खोज थी।...पर हाय, भूल गया था वह अभागा, उसी पुकार को जिसे अनजाने में खोजते ही ये सारे वर्ष विफल हो गये हैं। उस दिन पुरुषार्थ के अभिमान ने उसे लौटकर नहीं देखने दिया था। पर आज...? आज वह खड़ा है इस शून्य में आँखें पसारकर...वेबस:...पर नहीं हैं वह पहल...नहीं है वह अदा...नहीं है उस पृदु मुख की कैश लटें...नहीं है वह उड़ता हुआ नीलाम्बर! केवल एक पुकार दिगन्तों के अन्तराल में विछड़तो ही चली जा रही है...: सामने के एम नर में बनी थी, लहरें से माह पारेणय की बंदी। जल की नीलाभा पर वे होम की सुगन्धित अग्नि-शिखाएँ। धुएँ के नोल आवरण में उस प्रवाही लावण्य की उामेल आभा झलक जाती।...पर मन की उस क्षण की वह प्रतारणा, वह आत्मद्रोह...! वह नहीं देख सका था उसे, वह नहीं सह सका था सौन्दर्य की वह दिव्य श्री। ओ भागे, किस जन्म की विषम और दीर्घ अन्तराय लेकर जन्मे थे? कैसा दुर्धर्ष था वह अभिशाप? कितने वर्ष बीत गये हैं...गिनती नहीं है...शायद दस-बीस...बाईस वर्ष मैंने मुड़कर नहीं देखा... यह तिर्यक चकवी एक रात के प्रिय के विरह में हतप्राणा हो गयी हैं। पर उस मानवी ने उस रनमहल की वैभव-कारा में बाईस वर्ष बिता दिये...बाईस वर्ष! कोई अभियोग नहीं, कोई अनुयोग नहीं, कोई उपालम्भ नहीं? एक व्याध की तरह मानसरोवर की इस हँसी को मैंने सोने के पिंजड़े में ले जाकर बन्द कर दिया और फिर लौटकर नहीं देखा कि वह जी रही है या मर गयी है! देखना दूर, उसकी बात सोचना भी मुझे पाप हो गया था। अकस्मात् एक सघन विषाद के आवरण को चीरती हुई दीखी वह पूर्ण मंगल-कलश लिये, महल के द्वार-पक्ष में खड़ी अंजना। एक अयश आनन्दन से पवनंजय का सारा मन-प्राण विहल हो उठा! अरे तम्हीं हो...तम! विच्छेद की सहस्रों रातों में वेदना की अखण्ड दीपशिखा-सी तुम बलती रही हो?...और उस दिन चुपचाप मुसकराकर, मुझ पापी का पथ उजाल रही थीं! क्या था तुम्हारा ऐसा अक्षम्य अपराध कि मैंने तुम्हारा मुंह तक नहीं देखा, और डंके की चोट तुम्हें त्याग दिया? मैंने त्याग दिया था, क्योंकि मैं पुरुष था, पर तुम? क्या तुम मुझे नहीं त्याग सकती थी? तुम भी तो दीक्षा लेकर अपने आत्म-कल्याण के पथ पर जा सकती धी?...पर तुम न गी....क्योंकि मेरे युद्ध-प्रस्थान की वेला में, वह मंगल का कलश जो तुम्हें सँजोना था...! ...एक और आत्म-मोह का आवरण मानो सामने से हट गया। उसे दीखी एक मुग्धा किशोरी! उसकी वह समर्पण से आनत भंगिमा, जो अपने प्रिय की स्तुति सनकर सख में विभोर हो गयी है। आँखें उसकी निगूढ़ लाज से मैंद गयी हैं। माथा झुका है, और होठों पर है एक सुधीर गोपन आनन्द की मुसकराहट । एकरस और अजस्त्र है वह प्रवाह । स्पर्शन, दर्शन, वचन का विकल्प वहाँ नहीं है। स्वीकार की 10 :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy