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________________ जन्म-जन्म के दुरभिशाप से वह शापित है : किस अविजानित अन्तराध से बह बाधित है? क्या है इसके तरुण मन की चाह: क्या है उसकी चिन्ता और उसका स्वप्न? उस अँघरे की चिर सन्निद्र अचेतनता में से एक गम्भीर पीड़ा का बाप्प आकर मानो पवन के हृदय में बिंधने लगा। वह मुक्त करेगा उस योगी को, तभी जा सकेगा ...वह पार करेगा झील और भेदेगा गफाओं को उस तमसा को...! . . तभी उसकी दृष्टि उन गुफाओं से परे, मानसरोवर के सुदूर पश्चिमी जल-शितिज़ पर गयी। विरल देवदारु वृक्षों के अन्तराल में सूर्य का किरण-शून्य चम्पक बिम्ब डूब रहा है। कोई गहरी नीली लहरी उस पर उझककर हुलक जाती है। उस पर होते हुए हंसों और सारसां के युगल रह-रहकर आर-पार उन जाते हैं। कुमार को लगा कोई तरुण योगी जलसमाधि ले रहा है । समस्त तेल उसका पर्यवसित हो गया है, उन उझकती लहरों में; और उनके तरन शीतल आलिंगन में हो गया है वह निरे शिश-सा कोमल और निरीह... ...तभी एकाएक पैरों के पास पवनंजय को किसी पक्षी का आर्त स्वर सुनाई पड़ा। ज्यों ही उनकी दृष्टि वहाँ पड़ी तो उन्होंने देखा कि तट के कमल-वन में तरंग-सीकरों से आई एक कमल-पत्र पर एक अकेली चिकवी छरपटा रही है। इस जलमय पत्र की मृदु शीतलता भी मानो उसे शूल हो गयी है! वह त्रस्त नयनों से दूबले हार सूर्य की ओर देखती है, और आकुल होकर, पंख फैलाकर लोटने लगती है। वह झुकंकर पल में जना प्रतिदिन देती है और लगाना - मि नही है ....वही है उसका प्रीतम चकवा, इस जल के तल में। वष्ट करुण स्वर में उसे पुकारती हैं, पर वह प्रीतम नहीं सुनता है, नहीं आता है। वह उन लहरों में चोंच इबो-दुबोकर उसे खींच लेना चाहती है, पर वह खो जाता है। हारकर वह चकवी श्लध पंखों से तट के वृक्षों पर जा बैठती है। सूनी आँखों को फाइ-फाड़कर वह दसों दिशाओं को ताकती है। दूर कटक से आ रहे कोलाहल के विचित्र स्वर उसे भ्रमित कर देते हैं। वह हारकर, झींककर, वियोग के आक्रन्दन से विहल हो भूमि पर आ गिरती है। पंख हिला-हिलाकर, कमलों की सुरभित-कोमल रज लग गयी है, उसे वह दूर कर देना चाहती है। इबते हुए सूरज की कोर पर चकची का प्राण अटका है।...कि लो, वह सूरज डूब गया, और चकवा अन्न नहीं आएगा! और विरह की यह रात्रि सम्मुख है आसन्न? निष्प्राण होकर चकयो भूमि पर पड़ गयी। ..और आत्मा के अवशेष अन्तगलों को चोरकर दूर से आती हुइ जैले एक 'आह' कमार को सनाई पड़ी। मूक और निस्पन्द पड़ी है यह चकवी, फिर किसकी है यह करुण पुकार ? ...काल का अभेद्य अन्तराल जैसे एकाएक विचिन्न हो गया।...वर्षों पहले की एक सन्ध्या में, सरोवर के इतो प्रदेश में, लहरों की गोद में लीला का वह मुक्त क्षण!...और वहाँ सामने बना था वह जिला महल...दिगन्त में वह 'आह' गूंज उठी मुक्तिभूत . 107
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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